होली के रास-रंग में, बूढ़वन सब बौराये हैं
पिचक चुके गालों पे, इत्र लगाके इतराए हैं
फागुन के मस्ती में देखो कैसे जवानी छाइ है
पोपले मुँह में पान ठूँसकर बने आज जमाई हैं
सिर के बाल सरके, क्विंटल भर की लुगाई है
सलहज साथ मिल बैठे और दाब रहे मिठाई हैं
फफक उठे साँसों का सरगम,होली आस जगाई है
टाँगें कांप रहे हैं किंतु साली पर निगाह टिकाई है
धूम-धड़ाका मस्ती ऐसी, जमके कमरिया लहराई है
सम्हल सके ना गिरे धड़ाम तब बीबी लगी कसाई है
होली है…
-चन्द्र विजय प्रसाद चंदन
देवघर, झारखण्ड