उनींदे सन्नाटे पर
किसी ने बार किया
रेत दिया गला किसी की चीख़ ने
रात की गहरी ख़ामोशी का
बहुत बुरा होता है ये आघात
क्या-क्या नहीं होता रात में
कहीं यादें समेटती आँखें,
कहीं बेशक़ीमती ख्वाब।
कहीं प्रेम का आमंत्रण
या मेरे जैसा सफ़हात की
भूख मिटाता लेखक।
बिखर जाती है यादें
टूट जाते हैं ख्वाब,
सहम जाता है प्रेम,
चौकन्ना हो जाता है कलम
पुराने विषय पर चलने हुए रुक जाता है।
पर भूखे शैतान के जिन्दा बदन के
गोश्त पर दाँत गाड़ने से
निकली चीख का प्रहार हो तो
क्या इतना नुकसान लाज़मी है?
खून में डूबे हुए कलम को
मिल जाती है ताज़ा स्याही
किसी और के दाँत मारने से
सफ़हात को मिल जाता है नया ज़ायका।
हफ्तों और महीनों तक
उन्हें तो इंतजार ही रहता है
शैतानों के नए नए हमलों का।
लेखक से साहित्यकार होने के
लंबे सफ़र से जो गुज़रना है।
-अल्का जैन ‘शरर’