एक उजड़ा हुआ शहर- रजनी शाह

एक उजड़ा हुआ
शहर है
चरचराती जमीन है
धुंधला-धुंधला
आकाश है
छितरा-छितरा
यहाँ-वहाँ बसे हुए
लोग हैं
चलते जा रहे
कब से,
हँसी जो गुमनाम है
लक्ष्य जो भयभीत है
कोई नहीं जानता
क्यों चल रहे हैं
कोई नहीं जानता
क्यों भाग रहे हैं,
मकान इधर-उधर
बिखरे हैं
कहीं एक, कहीं दो
हर घर में कुछ
अंगुलियों पे गिने जाए
बस इतने ही लोग हैं,
परिवार कहाँ हैं,
शहरों की हालत
ऐसी ही है,
उजड़ा सा दिखता है
हर शहर ही
इन आँखों से
थोड़ा बसा हुआ
थोड़ा उजड़ा हुआ,
कहाँ गए सारे लोग,
कहाँ गया परिवार,
बचपन में
एक घर हुआ करता था,
हाँ मकान अपना नहीं था
पर घर अपना था
कुछ सात लोग
और
एक बिल्ली रहा करते थे,
छोटी सी टीवी में
भीड़ बहुत थी
देखने वालों की,
आस-पास के लोग भी
आकर
बैठ जाया करते थे,
मुश्किल से
चावल, दाल, एक सब्जी
घर में खाने के लिए
बन जाता था पर
होली, दिवाली में
मिठाइयां और
पटाखों की भरमार
पिता जी
लगा ही देते थे,
साल में दो-चार नए कपड़े
हो ही जाया करते थे,
आस-पास के गाँव और शहरों से
अपने रिश्तेदार कुछ
दिन हमारे साथ बिताने
आया भी करते थे,
वह एक घर था
जहां धूप, वर्षा, बसंत
पतझड़ सब पता चलता था,
पर्व-त्यौहारों में
बार-बार बाजार
जाया करते थे,
अब उजड़ा सा शहर है
मकान तो
अपना है
जहां कोई परिवार नहीं
कोई ईद, दिवाली नहीं
मेरी वह बिल्ली भी नहीं,
बड़ी सी दीवार वाली
टीवी है
जिसे कभी ऑन करने का
समय नहीं
किताबों के भीड़ में
अतीत के साये में
कभी नीला सा
कभी पीला सा
आकाश है,
शून्य भी है
शून्य भी नहीं,
यह संसार
एक उजड़ा सा
शहर हो गया है

-रजनी शाह