‘संघर्ष अथवा कोशिश तो अनिश्चितता की प्राप्ति हेतु है, जो निश्चित है, उसके लिए किया गया संघर्ष मात्र उत्सुकता और धैर्य के अभाव का प्रदर्शन है।’
एक विषय है मृत्यु….. जो कि इस सृष्टि में निश्चित है। एक दूसरा शब्द है आत्महत्या। यह एक गंभीर शब्द है। इसकी गंभीरता और भी अधिक दिखाई देती है, जबकि इसका चयनकर्ता कोई किशोर, युवा हो। आत्महत्या शब्द का तात्पर्य है, स्वयं से जीने का अवसर छीन लेना। यह एक गहरी निराशा की स्थिति है, जहां व्यक्ति स्वयं को अपनी इच्छा पूर्ति में असमर्थ पाता है। यही समस्या है। इससे जुड़े समाधान भी अवश्य विद्यमान है। विकल्प हमेशा विद्यमान होते हैं। यह एक साधारण विचार है।
व्यक्ति की सोच मुख्य रूप से उसको आत्महत्या की तरफ से प्रेरित करती है। यह विषय गंभीर तब हो जाता है, जब विद्यार्थी वर्ग इसका चयन करता है। आधुनिक समय में विद्यार्थी वर्ग पढ़ाई में मिली असफलता या असफलता के डर से मृत्यु चयन जैसे कदम उठा लेते हैं। परीक्षा का दौर हमेशा ही चलता है और इस क्रम में चलेगा भी। चाहे वह स्कूल स्तर की या प्रतिस्पर्धी परीक्षाएं या पेशेवर परीक्षाएं यह किसी भी प्रकार की हो सकती है।
परीक्षाएं, असफलताएं और गलत कदम। यह कुचक्र की तरह है। इस कुचक्र का श्रेय मृत्यु चयन करने वाले व्यक्ति को दिया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि उस व्यक्ति को वैचारिक रूप से निर्बल बना कर उसे इस परिस्थिति में डाला जाता है। यहां पर स्थिति परिवर्तन पर विचार करना आवश्यक है। वैचारिक परिवर्तन पर विचार करना आवश्यक है।
आज का युग भौतिकवाद पर जोर देता है, अर्थात प्राप्ति और पूर्ति पर। वैचारिकता व्यक्ति के मस्तिष्क में से खत्म हो चुकी है। आज की शिक्षा पद्धति ना तो ज्ञान उपलब्ध कराने में समर्थ है और ना ही इससे धन की उपलब्धता संभव है। जबकि मनुष्य के कर्म का आधार सत्य रूप से ज्ञान की प्राप्ति और धन की प्राप्ति ही है। अर्थात शिक्षा पद्धति दोषपूर्ण है।
जीवन के उद्देश्य बहुत बड़े हैं और व्यक्ति ने अभी उन्हें खोजा नहीं है, किंतु अभी समय पर्याप्त है। विशिष्ट उद्देश्य को ढूंढ सकते हैं, और उसे पूरा कर सकते हैं। अगर व्यक्ति को विशिष्टता प्राप्त करनी है तो उसे ऐसा ही करना होगा।
हमारा शिक्षा तंत्र हमारी बनाए हुए नियमों का एक हिस्सा है, जहां शिक्षा के अनेक स्तर और डिग्रियां निर्धारित की गई है। इन स्तरों को प्राप्त करना अथवा ना करना हमारे सामान्य उद्देश्य की पूर्ति भी नहीं करता। अर्थात आज की शिक्षा पद्धति हमें नौकरी हेतु तैयार करती है, ज्ञान प्राप्ति हेतु नहीं। शिक्षा पद्धति का नौकरीकरण हो चुका है। यह प्राचीनतम शिक्षा पद्धति से भिन्न है, जहां शिक्षा का तात्पर्य ज्ञान अर्जन था।
दूसरा तथ्य यह है कि यह धन संबंधित आवश्यकता की पूर्ति करने में भी असमर्थ है। धन की इच्छा व्यक्ति की मनस्थिति पर निर्भर है, जबकि नौकरी से एक सीमित धन प्राप्त होता है। इस शिक्षा पद्धति से प्राप्त नौकरी से सीमित धन और स्थायित्व प्राप्त किया जा सकता है, किंतु यह साथ ही एक आलस भी देता है, जो मनुष्य विकास में बाधक हैl
मूल भाव यह है कि शिक्षा तंत्र द्वारा निर्धारित मापदंड मनुष्य की संपूर्ण योग्यताओं को मापने हेतु पर्याप्त नहीं है। यह तंत्र मनुष्य के द्वारा निर्मित है, जिसमें मिली असफलता को मनुष्य की असफलता नहीं कहा जा सकता। मनुष्य स्वयं श्रेष्ठ उद्देश्य धारण करने वाले तंत्र है, जिस का मूल्यांकन करना मनुष्य के द्वारा बनाए गए तंत्र से संभव नहीं है। फिर स्वयं को इस कसौटी पर तोलने का कोई आधार नहीं है।
इस तथ्य की गंभीरता को समझा जाएगा, तब अवश्य ही संकीर्णता का एक भ्रम टूटेगा कि शिक्षा में मिली असफलता जीवन की विस्तृतता के सन्मुख अंश मात्र भी नहीं है। सामाजिक संकीर्णता की इस विचारधारा में व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से दोषी नहीं है। यह एक परंपरागत संकीर्ण विचार है, जो पूर्वजों द्वारा प्रवाहित हो रहा है।
आज भौतिकवाद का युग है। इसके दो महत्वपूर्ण दोष है। प्रथम प्रतिष्ठा और दूसरा प्रतिस्पर्धा। अगर व्यक्ति प्रतिष्ठा या जो दूसरों को दिखाने के लिए कर्म कर रहे हैं या प्रयास कर रहे हैं, तो वह अपना समय और शक्ति दोनों ही अन्य व्यक्तियों पर खर्च कर रहे हैं। यह जीवन का उद्देश्य नहीं है, बल्कि अपने कर्मों में श्रेष्ठता लाना ही जीवन का उद्देश्य है, इसलिए उस हेतु ही प्रयास करें।
दूसरी तरफ प्रतिस्पर्धा है। वास्तव में प्रतिस्पर्धा मनुष्य के कर्मों का हिस्सा नहीं होना चाहिए। मनुष्य को अपने उद्देश्य तय करने हैं और उस पर पूर्ण श्रद्धा, केंद्रीकरण, नीति प्रबंधित करके कार्य करना है। दूसरे क्या करते हैं। वह किस स्तर पर हैं। ऐसा सोचना समय को व्यर्थ होना है। सरल शब्दों में कहा जाए तो सभी मनुष्य को एक ट्रैक नहीं मिला हुआ है, जहां आपको दौड़कर प्रथम आना है।
प्रथम आने का तो कोई मूल्य ही नहीं है। प्रथम आना श्रेष्ठता भी नहीं है। सत्य है कि आप सभी को अलग-अलग ट्रैक मिले हैं, जहां आप को चलना है पूर्णता प्राप्त करनी है। अब यह पूर्णता कितने आदर्श रूप से प्राप्त करते हैं, यही श्रेष्ठाता का मापन है अर्थात ‘कैसे’ पूर्ण किया? इसलिए प्रतिस्पर्धा का कोई औचित्य ही नहीं है।
आपको स्वयं को मंथन करना होगा कि मनुष्य के द्वारा बनाए गए तंत्र में निर्धारित परीक्षाओं में मिलने वाली असफलता बहुत ही छोटी असफलता है, यह जीवन को तय नहीं करती है। अवश्य ही एक श्रेष्ठता को प्राप्त करने की दिशा में वैचारिक परिवर्तन आवश्यक है।
मनुष्य सभी जीवों में श्रेष्ठ है। इसी श्रेष्ठता के आधार पर उससे उम्मीद की जाती है कि वह कठिन परिस्थितियों से निकलना जानता हैl अतः इसे हेतु अपने जीवन को तैयार करें। जिंदगी के मूल्यांकन पर ध्यान केंद्रित करें और इस सफर को पूर्ण रूप से श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास करें।
पूजा झिरिवाल
चार्टर्ड अकाउंटेंट
अलवर, राजस्थान