Wednesday, May 1, 2024
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माँ दुर्गा की आराधना के महापर्व चैत्र नवरात्रि का महत्व

सोनल मंजू श्री ओमर
राजकोट, गुजरात

आज मंगलवार 9 अप्रैल 2024 से चैत्र नवरात्रि का आरंभ हो रहा है। नौ दिनों तक यह पर्व बड़े ही धूमधाम से मनाया जाएगा। इन नौ दिनों में माता रानी के अलग-अलग नौ स्वरूपों की भव्य पूजा अर्चना की जाती है। हिंदू धर्म में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार चैत्र नवरात्रि के पहले दिन माँ दुर्गा का जन्म हुआ था और माँ दुर्गा के कहने पर ही ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसीलिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हिन्दू वर्ष शुरू होता है। कई स्थानों पर इसे गुड़ी पड़वा भी कहा जाता है।

चैत्र नवरात्रि के तीसरे दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप में पहला अवतार लेकर पृथ्वी की स्थापना की थी। इसके बाद भगवान विष्णु का सातवां अवतार जो भगवान राम का है, वह भी चैत्र नवरात्रि की नवमी के दिन में हुआ था। इसलिए धार्मिक दृष्टि से चैत्र नवरात्रि का बहुत महत्व है।

अमावस्या की रात से अष्टमी तक या गुड़ी पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम के अनुसार चलने से नौ रात यानी ‘नवरात्रि’ नाम सार्थक है। चूंकि यहां रात गिनते हैं इसलिए इसे नवरात्रि यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। इस दिन से कई लोग नौ दिनों या दो दिन का उपवास रखते हैं।

नवरात्रि वर्ष में चार बार आती है। जिसमे चैत्र और आश्विन की नवरात्रियों का विशेष महत्व है। चैत्र नवरात्रि में रात्रि का अंधकार कम होने लगता है और दिन का प्रकाश बढ़ने लगता है, जबकि शारदीय नवरात्रि में इसके विपरीत होता है। यह हमें बताता है कि जीवन में विपरीत परिस्थितियों अंधकार की तरह बढ़ती और घटती रहती हैं इन दोनों स्थितियों में संतुलन बनाए रखने का दायित्व हमारे “मन” का ही होता है, इसलिए दुर्गा सप्तशती में नवरात्रि के प्रथम दिन ही शैलपुत्री के पूजन को वरीयता दी गई है माँ शैलपुत्री की कृपा युक्त रहने से अनेकानेक संकट स्वयं से ही नष्ट हो जाते हैं फिर मन जो है हिमालय पर्वत जैसे प्राकृतिक आकर्षण का रूप लेने लग जाता है। चैत्र नवरात्रि से ही विक्रम संवत की शुरुआत होती है। इन दिनों प्रकृति से एक विशेष तरह की शक्ति निकलती है। इस शक्ति को ग्रहण करने के लिए इन दिनों में शक्ति पूजा या नवदुर्गा की पूजा का विधान है। इसमें माँ की नौ शक्तियों की पूजा अलग-अलग दिन की जाती है।

माँ शैलपुत्री

माँ दुर्गा का पहला स्वरुप शैलपुत्री है। शैल का मतलब होता है शिखर। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार देवी शैलपुत्री कैलाश पर्वत की पुत्री है, इसीलिए देवी शैलपुत्री को पर्वत की बेटी भी कहा जाता है। वृषभ (बैल) इनका वाहन होने के कारण इन्हें वृषभारूढा के नाम से भी जाना जाता है। इनके दाएं हाथ में त्रिशूल है और बाएं हाथ में इन्होंने कमल धारण किया हुआ है। माँ के इस रूप का वास्तविक अर्थ है- चेतना का सर्वोच्चतम स्थान।

माँ ब्रह्मचारिणी

नवरात्रि पर्व के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या ओर चारिणी यानी आचरण करने वाली| इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। माँ दुर्गा ने पार्वती के रूप में पर्वतराज के यहां पुत्री बनकर जन्म लिया और महर्षि नारद के कहने पर अपने जीवन में भगवान महादेव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। हजारों वर्षों तक अपनी कठिन तपस्या के कारण ही इनका नाम तपश्चारिणी या ब्रह्मचारिणी पड़ा। अपनी इस तपस्या की अवधि में इन्होंने कई वर्षों तक निराहार रहकर और अत्यन्त कठिन तप से महादेव को प्रसन्न कर लिया। माँ ब्रह्मचारिणी के दाएं हाथ में माला और बाएं हाथ में कमण्डल है।

माँ चंद्रघंटा

नवरात्रि में तीसरे दिन माता चंद्रघंटा की पूजा-आराधना की जाती है। इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं। सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इनके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।

माँ कुष्मांडा

नवरात्रि के चौथे दिन माँ दुर्गा जी के चौथे स्वरूप माँ कुष्मांडा का पूजन अर्चन किया जाता है। कुष्मांडा का अर्थ होता है- कुम्हड़े (कद्दू)। माँ को बलियों में कुम्हड़े की बलि सबसे ज्यादा पसंद है। इसलिए इन्हें कुष्मांडा देवी कहा जाता है। माँ कुष्मांडा को अष्टभुजा भी कहा जाता है। क्योंकि माँ कुष्मांडा के आठ भुजाएँ हैं जिनमें कमंडल, धनुष-बाण, कमलपुष्प, शंख, चक्र, गदा और सभी सिद्धियों को देने वाली जप माला है। इन सबके अलावा माँ के हाथ में अमृत कलश भी है। माँ कुष्मांडा की सवारी सिंह है।

माँ स्कंदमाता

नवरात्रि में पाँचवें दिन इस देवी की पूजा-अर्चना की जाती है। स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। इस देवी की चार भुजाएं हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है।

माँ कात्यायनी

नवरात्रि के छठे दिन जगतजननी माँ दुर्गा के छठे स्वरूप माँ कात्यायनी का पूजन एवं आराधना की जाती है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि वे परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से उत्पन्न हुई थीं, जिन्होंने देवी पार्वती द्वारा दी गई सिंह पर आरूढ़ होकर महिषासुर का वध किया। वे शक्ति की आदि रूपा है, जिसका उल्लेख पाणिनि पर पतञ्जलि के महाभाष्य में किया गया है। माँ कात्यायनी परम्परागत रूप से देवी दुर्गा की तरह लाल रंग से जुड़ी हुई हैं। नवरात्रि उत्सव के षष्ठी को उनकी पूजा की जाती है। उस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है। परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्तों को सहज भाव से माँ के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं।

माँ कालरात्रि

नवरात्रि के सातवें दिन जगतजननी माँ दुर्गा के सातवें स्वरूप माँ कालरात्रि का पूजन एवं आराधना की जाती है। माँ के शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है। माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम ‘शुभंकारी’ भी है।

माँ महागौरी

नवरात्रि के आठवें दिन जगतजननी माँ दुर्गा के आठवें स्वरूप माँ महागौरी का पूजन एवं आराधना की जाती है। माँ का वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- ‘अष्टवर्षा भवेद् गौरी।’ इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं। माँ महागौरी की चार भुजाएँ हैं। इनका वाहन वृषभ है। इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा हैं। इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं।

माँ सिद्धिदात्री

नवरात्रि के नौवें दिन दुर्गाजी के नौवें स्वरूप मां सिद्धदात्री की पूजा और अर्चना का विधान है। जैसा कि इनके नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली देवी हैं मां सिद्धिदात्री। इनके चार हाथ हैं और ये कमल पुष्प पर विराजमान हैं। वैसे इनका वाहन भी सिंह ही है। इनके दाहिनी ओर के नीचे वाले हाथ में चक्र है और ऊपर वाले हाथ में गदा है। बाईं ओर के नीचे वाले हाथ में कमल का फूल है और ऊपर वाले हाथ में शंख है। प्राचीन शास्त्रों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व नामक आठ सिद्धियां बताई गई हैं। ये आठों सिद्धियां मां सिद्धिदात्री की पूजा और कृपा से प्राप्त की जा सकती हैं।

नवरात्रि के नौ दिन पूजा अर्चना एवं व्रत करने के पश्चात नवरात्रि व व्रत का पारण (समापन) नवमी को कन्याओं को भोजन कराके किया जाता है। नवरात्रि के अंतिम दिन को हम भगवान राम के जन्मोत्सव के रूप में मनाते है। इस प्रकार माता के नौ दिन के नौ स्वरूप की महिमा निराली है।

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