जब से होश संभाला मैंने,
कभी न बैठा खाली हूँ
पतझड़ में भी पुष्प उगाता,
अलमस्त चमन का माली हूँ
दर्द समझता उनका भी मैं,
जो फूलों पर सोते हैं
सीढ़ी चढ़ कर सबसे ऊंची,
खुद दूर सभी से होते हैं।
हुई न पूरी मन की मुरादें,
करता बस रखवाली हूँ
जीवन के सोपानों पर जो,
सत्य से विचलित होते हैं
रह जाते हैं ख्वाब अधूरे,
बोझ गमों का ढोते हैं
होता है वीरान चमन और
मनाता में दीवाली हूँ
नहीं कामना कोई ऐसी कि,
इक वृक्ष बड़ा मैं बन जाऊं
स्वार्थ के खातिर दुनिया में,
ज़ुल्म बहुत से कर पाऊं
रोज़ लुटाता प्यार हृदय से,
ऐसा मैं वन माली हूँ
-राम सेवक वर्मा
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