मुरझाये हर शाख में कोपल खिल आये
आमों की डाली में झूले पड़ आये
विमल वायु में कज़री के सुर भी घुल आये
पर छप्पर वाली माँ के चेहरे अब भी मुरझाये
छम-छम के स्वर पायल सा बारिश छनकाये
और कमल खिल तालों मे कब से इठलाये
ये धरती धानी रंग मे यौवन छलकाये
पर बूढ़ी माँ के घर के कोने गीले ही पाये
ये मेघ तो बंग्लो में भी बरसाएये
टूटे छप्पर पर भी कहर है ढाये
है हँसना या रोना हम कैसे बताये
भर आया जल से जग जब वो रोये
धान पछोरे बैठ कर, जो स्वामी बन आये
और कहर का दोषी रब को ठहराये
सब बहरे बन बैठे, क्यों बाल नोच चिल्लाये
अपनी छप्पर, अपना जीवन, आपहि दोष कहाये
-अपर्णा सिंह
हंडिया, प्रयागराज