आग की हर बार जंगल पे कयामत हो रही
पंछियों के साथ भी इसकी अदावत हो रही
ना फ्लक पे है नज़र ना है इश्क परवाज़ से,
पंख ही जब खोलने की ना इजाज़त हो रही
अब बदलते लोग चेहरे वस्तुओं की ही तरह,
भावनाओं की बाजारों में तिजारत हो रही
मौत से पहले करूंगा मैं हरिक मंज़िल फतेह,
मौत, ज़िंदगी दरमियां बेशक बगावत हो रही
जब शमा उसने बुझाई डाल कर तीर-ए-नज़र,
फिर क्यों निर्मल हवाओं पर शिकायत हो रही
देख कर औकात दुश्मन की दया आई मुझे,
बुजदिली ना समझिए यह तो शराफ़त हो रही
चुग रहे मोती समझ कर हंस सूखी झील में,
अब फकत कंकर ही चुगने उन की आदत हो रही
-आर.बी. सोहल