निगाहों में नफ़रत कहर बन गयी है
वजह कुछ नहीं पर जहर बन गयी है
सजायी ज़िगर में महज़ हमने उल्फ़त
ज़िगर में वही अब फ़िकर बन गयी है
किसे हम सुनायें दिले हाल अपना
परायी नजर सी नजर बन गयी है
शबे-गम अकेले विरह में गुजारी
मगर अब सहर दोपहर बन गयी है
नदी की मुहब्बत समझता है सागर
हवा के परस से लहर बन गयी है
नहीं मोतबर कुछ बचा अब दहर में
हसीं जिंदगी बेकदर बन गयी है
गली है पुरानी मगर मीत मेरे
शहर की डगर रहगुज़र बन गयी है
-डॉ उमेश कुमार राठी