कितने मासूम थे साये, कि शक़ हुआ न कभी
पसीने में यूँ नहाये, कि शक़ हुआ न कभी
खुशामदीद थे बे-इंतहा सूरत पे मिरी
कशीदे खूँ से करवाये, कि श़क़ हुआ न कभी
रंग बहारों से चुरा कर के सालगिरहों को
गुलिस्ते घर पे भिजवाये, कि शक़ हुआ न कभी
शोख़ मुस्कान लिये, थरथराते होठों से
लबों पे लब यूँ झुकाये, कि शक़ हुआ न कभी
ज़िक्र छेडा था दोस्तों ने जब कभी मेरा
किस कदर थे शर्माये, कि शक़ हुआ न कभी
-डॉ कविता माथुर
सीएटल, यूएस