इस पूँजीवादी दौर में तुम
बिना भाड़ा दिए एक भी महीना
रह सकते हो किसी के मकान में?
जो समाज महामारी के दौर में भी
नहीं भूलता मुनाफ़ाखोरी
स्वार्थपरकता बहती है
जिनकी धमनी और शिराओं में रक्त बनकर
हज़ारों ग़रीब विवश हैं मरने को भूखे
जहाँ पैसों के अभाव में
घास की रोटियाँ और मेंढक बन रहे हों निवाला
जहाँ के बाशिंदों की
हिचकिचाता नहीं जहाँ क़त्ल करने से
एक भाई दूसरे सगे भाई का
फ़क़त ज़मीन के कुछ टुकड़ों के लिए
जहाँ बच्चे बन जाते हैं पितृहन्ता
सम्पत्ति के स्वामित्व के ख़ातिर
जहाँ खुल रहे हैं नित नए अनाथालय और वृद्धाश्रम
क्या सम्भव है, बिना किराया दिए रहना
किसी के मकाँ में
एक भी महीना?
नहीं न?
तुम्हें उत्तर मिलेगा- नहीं!
कोई एक दिन भी नहीं रखेगा तुम्हें
अपने मकाँ में बिना भाड़ा लिए।
तो फ़िर सोचिए उस माँ के बारे में
जो एक नहीं,दो नहीं,पूरे नौ महीने रखती है अपनी कोंख में तुम्हें
वो भी बिना किराया लिए।
यही नहीं,वो सब कुछ देती है
जिससे की तुम मुकम्मल ‘तुम’ बनते हो।
सींचती है माँ तुम्हारे फूल से नन्हे बदन को
अपने खून और पानी से
धौंकनी सी चलती है उसकी साँसे
तपती रहती है ,जलती है वह जीवनभर
ताकि एक सुघड़ और मजबूत आकर दे सके
तुम्हारी अनगढ़ काया को
दो ही जगह प्रिय होते हैं माँ को घर में
एक पूजा घर,दूसरा रसोई
जीवन गुजार देती है वह पूजा घर में
अपनी उम्र तुम्हें और अपने पति को देते-देते
और रसोई में टिकी रहती है मुसलसल
जब तक तुम्हारी क्षुधा शांत न हो जाये।
वक़्त के साथ रसोई घर को
सम्भाल लेती है तुम्हारे बच्चों की माँ
पर तुम्हारी माँ का बोझ तेरे घर का
एक कमरा भी न उठा पाता है
भूल जाते हो माँ के सारे एहसान
पटक आते हो उस बूढ़ी औरत को वृद्धाश्रम में
जैसे कपड़ों के गठरियों को पटक देता है धोबी
अन्य गठरियों के बीच।
पर बुढापा और मृत्यु एक ऐसा सत्य है
जिससे कोई नहीं बच सकता
राजा हो या रंक,अमीर हो या गरीब
‘वह’ आएगा एक दिन याद रखना
जब पटके जाओगे तुम भी
उन्हीं गठरियों के बीच
तब तलाशेगी तुम्हारी आँखे
अपनी जानी पहचानी ‘कपड़े की गठरी’
और नहीं पाकर उसे
तुम डूब जाओगे पश्चाताप के गहरे अंधेरे में
जहाँ जीवन की रोशनी मिलना नामुमकिन है।
-सूरज रंजन तारांश