रँग गए आज गुलाल, मिट गए मन के मलाल
पर देखा न मैंने कोई, आई हो यौवन सम्हाल
झाँक रहा स्मृतियों से, है दृश्य अद्भुत कमाल
सरर-सरर हवा फागुनी, महुआ मचाए धमाल
खनक बिखेरे माधुरी, सिंदूरी गाल हुए लाल
फगुनाहट पोर-पोर भर, मदमस्त मयूरी चाल
खिल पलाश बसंत बहके, देख हुआ निहाल
पैरों में घुँघरू बाँध नाची, लचके गोरी दे ताल
अब न वो पल दमके, ना होली मचाए बबाल
कहने को ये भी होली, खुद रँग ढालें हो निढाल
-चंद्र विजय प्रसाद ‘चंदन’
देवघर, झारखण्ड