गाँव की औरतें
जब कर रही होती है
खेत पर धान की रोपाई
तो उनकी चूडियाँ
……रचती है
आषाढ़ के सुनहले गीत
गाँव की औरतें
जब गा रही होती है
लोक देवियों के गीत
तो उनके स्वर
…..खेलते है
धुपडे़ के सुगंधित
धूँए पे
गाँव की औरतें
जब ली’प रही होती है
घर आँगन-गुवाड़
तो उनकी हथेलियाँ
…….रंगती है
गोबर-गेरु से
सभ्यता और संस्कृति
गाँव की औरतें
जब चटनी के भाटे पर
पेल रही होती है
सुगंधित मसालें
तो भाटे पर
……मलती है
दुनिया की सभी औरतों के दुःख
गाँव की औरतें
जब बटोर रही होती है
रस-गंध-फूल और महूवें
तो दुनिया की भूख
….मचलती है
सुगंधित पर्दाथों पर
गाँव की औरतें
जब देख रही होती है
घूंघट से सूक्ष्मतम शून्य
तो कज्जल-सी आँखें
……बुनती है
रूढ़ि समाज के
सामने जा रख आती है
घूंघट के भीतर घुटती यातनाएँ
-देव लाल गुर्जर