नए आशियाने बनाने चले हैं
वो खंडहर पुराने ढहाने चले हैं
जो हैं मेरी साँसों में, रग-रग में शामिल
वो ही आज मुझको भुलाने चले हैं
अभी सीख पाई कहाँ ढाई आख़र
नया पाठ क्यों वो पढ़ाने चले हैं
भुलाके वो मुरली की तानें सुहानी
तराने नए गुनगुनाने चले हैं
ज़मीं भी न देखे, फ़लक़ भी न देखे
यूँ ख़ुद ही से ख़ुद को छिपाने चले हैं
गले जिनको हँसकर लगाया था मैंने
मुझे वो ही मंज़र रुलाने चले हैं
कभी गुनगुनाई थी सरगम जो दिल ने
वो ही सुर मुझे अब जलाने चले हैं
जो सदियों से गफ़लत-भरी नींद सोए
ज़माने को वो ही जगाने चले हैं
बहुत मुश्किलों से उठे उसके दर से
रखे दिल पे पत्थर दीवाने चले हैं
-सीमा विजयवर्गीय