काटकर जंगलों को, संवरता रहा
शहर ये रोज़ आगे ही बढ़ता रहा
छोड़कर इक पुरानी धरोहर को वो
केंचुली रोज़ अपनी बदलता रहा
एक कम्बल भी हासिल नहीं कर सका
रात भर वो सड़क पर ठिठुरता रहा
झूठ के साथ तो चाँद-तारे भी थे
सच हमेशा अंधेरों से लड़ता रहा
मिट न पाईं खरोंचें जो दीं वक्त ने
और दिल उम्र भर ही सिसकता रहा
एक का भी न उत्तर दिया शहर ने
ख़त मगर गांव हर रोज़ लिखता रहा
ख़्वाहिशें कुछ दबी, कुछ अधूरी रहीं
फिर भी दिल हसरतों से दमकता रहा
ये नया ख़ून जानेगा क्या ज़िन्दगी
आइनों में ही सजता-संवरता रहा
रास्तों ने तो दीं ठोकरें ही सदा
दिल तो दिल था, फिसलता-संभलता रहा
-सीमा विजयवर्गीय