जब सब कुछ गया बिखर-बिखर
पूछो मत खुद को कैसे संभाला है
कहाँ ढूँढ़ती अपनी जख्मों को मरहम
सब निकले जब निष्ठूर निमर्म
बस खुद को ही धीर धराते रहे
सबसे बढ़कर है मन का संयम
जब चाहा ठुकराया है मुझको
फिर भी रिश्तो-नातों का हवाला है
पूछो मत कैसे खुद को संभाला है
मैं बोलूँ, इस जग को स्वीकार नहीं
मैं चुप हूँ तो यह मेरी हार नहीं
जो हम कर न सके वो वक्त समझायेगा
फिर कर पायेगी दुनिया इनकार नहीं
कभी इसके लिए, कभी उसके लिए
जीवन के हर साँचे में खुद को ढाला है
पूछो मत कैसे खुद को संभाला है
जब कोई नहीं विकल्प बचा
तब उर के घावों को आंसू से धोते रहे
जो कुछ भी दिया इस जग ने मुझको
हर बात हृदय से संजोते रहे
इन कजरारी आँखों के गर्भ में बस
अश्कों को ही मैंने पाला है
पूछो मत कैसे खुद को संभाला है
-रुचि शाही