प्रीत के निष्पंक साथी
बोल लो निस्पृह वाणी
चक्षुओं से बह रहा है
प्रश्न करता नेह-पानी
सींच कर उसर हृदय को
उर्वरा करने की ठानी
मेघरानी ले के पावस
आज बरसी बन के दानी
चमचमाती सभ्यता यह
मोहती सी आँग्ल-वाणी
बन गई अब बोलियों में
एक सुंदर राज-रानी
झुक गया मन भी वही
साथ पाते स्वाभिमानी
बहते जल में हाथ धोया
क्यों पड़ी मुँह की खानी
-कृष्णदेव चतुर्वेदी
522, पंचशील नगर,
भोपाल (मप्र)