अबकी जाड़ों में
पछतावों की गुफाओं से निकल
उदासियों के पहाड़ उतरकर
तुम आना, ये भूलकर
कि तुमने तौबा की है ।
सर्द होती किसी भी शाम
जब लम्बाते हों दरख़्तों के साए
अपनी उंगलियों से
थोड़ी सी गरमी रख देना
मेरी ठंडी हथेलियों पर।
जो न हो सके, तो फिर
बारिशों में आना ,
बन्द छतरी को बगल में दबाकर
भीगेंगे और फिसल जाने देंगे
अपने गीले मन को
जज़्बातों की ज़मीन पर।
यूँ गर्मियां भी कुछ बुरी नहीं
सांझ ढलती है ज़रा और देर से।
तब अधलेटे रहेंगे किसी पेड़ के तले
जैसे अरसे की नींद पड़ी हो
बोझिल बरौनियों पर।
मुझसे मिलने को चुन लेना
तुम अपने जी का कोई भी मौसम।
कि चाहतों की कोई रुत नहीं होती।
आजकल फिर दिल झुकने लगा है
थोड़ी दायीं तरफ़ को।
तुम्हारे पास भी फिर प्यार में पड़ने का
कोई तो बहाना होगा।
-विजयश्री तनवीर