अजीब हौसला अफजाई का मंजर निकला।
मिरे गिरे हुए शानों पे एक सर निकला।
झुलस के आफताब की तपिश से हम यारों,
ज़मीं पे आते कि बदन से एक पर निकला।
कहा ज़रूर जिगर ने कि इश्क मुश्किल है,
मैं ऐसे आग के दरिया को तैरकर निकला।
बड़ी उम्मीद थी ये शब गुज़र ही जाएगी,
तेरा फ़साना तो बेहद ही मुख्तसर निकला।
मकान बेचता फिरता है जो ज़माने में,
हकीकतन तो वही शख्स दर ब दर निकला।
अजीब शहर है इस शहर के मकानों की,
कई दीवार तोड़ दी तो एक घर निकला।
वो जिसके साथ गुज़ारी तमाम उम्र सलिल
वो शख्स हाल से मेरे ही’ बेखबर निकला।
– सोहन सलिल