ठुठें दरख्त का निशाँ बन गया हूँ मैं
उजड़े चमन का निशाँ बन गया हूँ मैं
शाखों पे थी कभी मोहब्बत की बस्ती
आज वीरान-सा मकाँ बन गया हूँ मैं
बड़ी बेदर्द-सी है सनम, तेरी सरस्पस्ती
इश्क के जख्मों का निशाँ बन गया हूँ मैं
कभी गुंजार था सनम, चमन में थी मस्ती
अब बिखरे गुलों का निशाँ बन गया हूँ मैं
कायदे से पूछी ना थी कभी मेरी हस्ती
मगर आज ग़मों का निशाँ बन गया हूँ मैं
-चन्द्र विजय प्रसाद चन्दन
देवघर, झारखण्ड