ये गुमनाम सा ख़त,
याद दिलाएगा एक दिन,
जब लोग थक हार कर,
अपनी- अपनी मौत को गले लगाने लगेंगे!
याद बाकी रहेगी,
उन फिज़ाओं की नमी में,
जब आंखों से उतर कर,
सीने के अन्दर,
कायम जज़्बात पिघलेंगे,
और आत्मा की गहराई में
डूबते नज़र आएंगे।
मै रहूँ या के चला जाऊँ,
बेचैन वीरान साए,
दौड़ कर पीछा करेंगे,
लिपट जाएंगे गले से,
और डाल कर यादों की चादर,
कूच कर चुका हूंगा,
बस! अगले पड़ाव के इन्तजार में,
सुनसान सड़कों पर,
बिखरी रहेंगी फूलों की,
अधखिली कलियाँ,
क्यारियों में सूखे पत्ते,
याद दिलाते रहेंगे वक्त के बूढ़े होने का,
जब गुलामी की आदत,
लत में बदल जाएगी,
तू सोच में बैठा रहेगा,
और पढ़ते हुए आसमान के तारों को,
बंजर होती ज़मीन में,
बनेगा खुद फसल उगा कर मजदूर,
जब धीरे- धीरे,
तुम्हारा अस्तित्व ख़त्म होने लगेगा,
याद आएगा ये ख़त
-जुगेश कुमार गुप्ता
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय