मैं वह पौधा हूँ जीवन का
कि कहीं से उखाड़कर
कहीं लगा दो पर
फिर से लहलहाता पेड़ बन जाऊँगी
देश की कोई सीमा
मुझे आसमां छूने से नहीं रोक सकती
कोई कोशिश करे तो
उनके लिए जहरीले सर्प बन जाऊँगी
चाँद, सितारे पूरा का पूरा गगन है
साथ मेरे
मैं भक्त हूँ, अपने भगवान की
सिर झुकाया है, नमन किया है
सदा उनके ही सामने
मैं तुच्छ नहीं
हर किसी के चरणों में समाने की
मैं वह पौधा हूँ
कि उखाड़ दो पर
मशरूम की तरह
मैं खुद ही उग जाऊँगी
हरे-हरे घास की तरह
लहलहाउंगी
मैं गुलदस्तों में सजाई जाऊँ या नही
पर जंगल की शान हो जाऊँगी
नहीं चाहिए एहसान का
खाद, पानी, सेवा मुझे
मैं प्रकृति हूँ, इस संसार की
मैं खुद ही सँवर जाऊँगी
जितना उखाड़ोगे तुम मुझे
मैं उतनी ही फैलते जाऊँगी
चारों ओर मैं ही मैं रच जाऊँगी
छेड़ कर न देख मुझे
अंगुलियाँ उठाने वाले
मैं तुम्हारे लिए
ज्वालामुखी सैलाब बन जाऊँगी
मुझे जितनी बार
उखाड़ोगे
मैं उतनी लहलहाते
खेत की तरह फैल जाऊँगी
-रजनी शाह