लपटें ऊँची उठीं बैर की,
संबंंधों में गहरी खाई।
दुर्वासित हो गयी, प्रीति का,
सौरभ छलकाती पुरवाई।
ढोंगी, ठेकेदार धर्म के,
बाँट रहे हैं इंसानों को।
शर्म नहीं आती रत्ती भर,
तथाकथित उन शैतानों को।
अफवाहों की चिंगारी से,
आग लगाते हैं दंगाई।
मूल्यों की बंजर फुलवारी,
अनाचार में जग डूबा है।
रंग-बिरंगी छलनाओं का,
स्वार्थ-सिद्धि ही मंसूबा है।
सच्चाई भयभीत, झूठ के,
घर में करती है पहुनाई।
गहरी नदिया पार लगाने,
सौंपी गयीं जिन्हें पतवारें।
मुगली घुट्टी दे वादों की,
दूर खड़े होकर दुत्कारें।
सरपंचों की चौपालों ने,
जन-गण-मन की नाव डुबाई।
पछुवा की आँधी के सम्मुख,
तार-तार हैं मर्यादाएँ।
गली-गली में लाज-शर्म की,
मनमौजी धज्जियाँ उड़ाएँ।
नागफनी पलती चिंतन में,
आँगन की तुलसी मुरझाई
नीर नयन से झर-झर झरता,
तन दुर्बल अति, जग संतापी
नजर न आता अंत दुखों का,
घूम-घूम कर दुनिया नापी।
चिंताओं में बूढ़ी दिखती,
नये जमाने की तरुणाई।
-स्नेहलता नीर