लाज क्यों लुट रही, मच रही खलबली
देश की फिर कहीं लाड़ली क्यों जली.
यदि यही सभ्यता है तो धिक्कार है,
हो रही है मनुजता जहाँ जंगली
सूर्य को लग गया क्या ग्रहण कलजुगी,
रात शापित हुई जो न अब तक ढली.
साँप से भी विषैला हुआ आदमी,
बात करता मगर जैसे गुड़ की डली
जानवर हो रही सोच इंसान की,
स्वार्थ की भावना धड़कनों में पली.
उड़ गए एकता के पखेरू सभी,
रक्तरंजित हुई प्यार की हर गली
पीर पर्वत हुई, धीर ज्वालामुखी,
आँख से झर रही नीर मेघावली
-स्नेहलता नीर