अब संभाल न पाऊँ मैं तुमको
हाथों से छूट रहे है हाथ प्रिये।
गए रात बहुत मैं रोती रही
सुध-बुध अपनी खोती रही
सहलाते हुए उर के घावों को
अधजगी सी मैं सोती रही
टूट रहा है मन का बंधन
हो सके तो फिर बांध प्रिय
अब संभाल न पाऊँ तुमको
हाथों से छूट रहे है हाथ प्रिय।
थोड़ा मेरी खातिर रुको
सुनो यूँ न अब मुझसे थको
कब चाहा मैंने वो सबकुछ
जो मुझको तुम दे न सको
बस इतनी सी चाह रही मेरी
सुख-दुख में रहते साथ प्रिय
अब संभाल न पाऊँ तुमको
हाथों से छूट रहे है हाथ प्रिये।
कितना तुमको समझया था
बहते अश्कों को दिखलाया था
कब कब जरूरत रही मुझको
एक एक लम्हा गिनवाया था
हर पल, हर क्षण बस तुम ही
क्या दिन और क्या रात प्रिय
अब संभाल न पाऊँ तमको
हाथों से छूट रहे हैं हाथ प्रिय।
-रुचि शाही