हां तेरे अस्तित्व की मैं धार हूं
पर तेरे हर दायरे के पार हूं
मैं अंधेरा, मुझसे पीडि़त है जगत
पर नहीं इसमें मेरा, कुछ व्यक्तिगत
मैं तो बस, एक सोच हूं उसकी निपट
बारहा जाता है वो जिससे लिपट
वो खड़ा है जिसपे, वो आधार हूं
पर तेरे हर दायरे के पार हूं…
दुख हूं मैं, तो सुख मेरे कारण तो है
भक्त है तेरा, मगर चारण तो है
क्यों भटकता है तेरी राहों में वो
चैन से सोता मेरी बाहों में वो
सोच ले, मै ही यहां सरकार हूं
पर तेरे हर दायरे के पार हूं
हैं कठिन, आसान बनते हैं यहां
जानकर अनजान बनते है यहां
क्या करोगे तुम, मुझे पहचानकर
एक दिन खोना है जब अनजानकर
मैं तुम्हारा आखरी सत्कार हूं
पर तेरे हर दायरे से पार हूं…
जागते हो तुम सुबह, एक साध से
शाम क्यों करते हो फिर अपराध से
लालिमा हर शाम, गहराती है क्यों
रात ही हर सुब्ह मर जाती है क्यों
फेंक जाता है कोई, अखबार हूं
पर तेरे हर दायरे के पार हूं…
-असर आशुतोष