कुढ़ी हुई है सभ्यता कमी रही विचार की
चली हुकूमतें यहाँ तभी तो दाग़दार की
सदा डरी है सत्यता बुरा बड़ा बना रहा
बुराइयों में दब गईं वो कोशिशें हज़ार की
बेरोक टोक चल रही तमाम जालसाजियां
आवाज़ दब रही यहाँ ग़रीब के पुकार की
यूँ काग़ज़ी धरा धरी शिकायतें निपट गयीं
अदालतें ही खा गयीं गुहार कामगार की
निभी न दोस्ती कभी हवस-हवस बनी रही
धुँआँ-धुँआँ पड़ी रही ख़ुमारियाँ वो प्यार की
इलाज़ रो रहा कहीं हक़ीम ख़ुद बीमार हैं
मरीज़ कर रहे दवा दुआ चुकी मज़ार की
कि ज़िन्दगी गुज़र गयी ईमान ढूढ़ते मग़र
ईमान न मिला मिली जफ़ा ईमानदार की
-रकमिश सुल्तानपुरी