ज़िन्दगी यूँ दर्द के आग़ोश में सहमी पड़ी है
ख़्वाहिशें सब ढह गई की आरजू बिखरी पड़ी है
एक पत्त्ते सा तपिस में ख़ाक होता रह गया दिल
और दिल पर धारियां भी जख़्म की गहरी पड़ी है
गर्दिशों में बच गये हैं खंडहर बनके मकाँ सब
एतबार की दीवारें दर-ब-दर कुचली पड़ी है
इश्क़ में दिल को जला कर पूछते है ख़ैरियत जो
है मग़र तस्वीर उनकी याद में धुँधली पड़ी है
जर्रा-जर्रा जल गया दिल ग़ल्तफ़हमी की वज़ह से
खामुशी छायी रही बस चीख यूँ निकली पड़ी है
क्या भला करना किसी से दर्द की बेज़ा नुमाइश
ग़मज़दा हर शख़्स, सबको दर्द की अपनी पड़ी है
छोड़ ‘रकमिश’ जिंदगी में वक़्त से कैसी शिक़ायत
आईने में ख़ुद की तस्वीरें यहाँ बदली पड़ी है
-रकमिश सुल्तानपुरी