रूची शाही
मैं अब रोना भी नहीं चाहती हूं
किसी दुख को सोचना भी नहीं चाहती
मैं अनसुना कर देना चाहती हूं तमाम बातों को
जो लोग करते हैं मेरे पीठ पीछे
कितनी जहरीली बातें होती थी..
कान बहरे से हो जाते थे जिसे सुनकर
पर नहीं डबडबाती हैं अब पहले सी आँखें मेरी
मैं अब रोना भी नहीं चाहती हूं
नहीं चाहती किसी को भी जवाब देना
नहीं चाहती अपने जख्मों को याद करना
पर भूली भी नहीं हूं कुछ भी मैं
अब भी जेहन में शेष है सब कुछ
वैसे ही जैसे पहली बार सहा था मैंने
पर नहीं चाहती मैं किसी का भी कंधा
मैं अब रोना भी नहीं चाहती हूं
मुझे इतना ठुकराया गया कि
मैं अब खुद एक किनारे आ खड़ी हूं
मुझे इतना अनसुना किया गया कि
अब मैं कहना भी भूल जाना चाहती हूं
लोगों के तीन चार चेहरे देखे हैं मैने
अपने मतलब से पहनते और उतारते हुए
इतनी कड़वाहट, इतना दोगलापन
देखने के बाद मैं अब
आँखें मूंद लेना चाहती हूं
मैं अब रोना भी नहीं चाहती हूं