समीक्षक- बलराज पांडेय
सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष बीएचयू
कविता संग्रह- कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
कवयित्री- वंदना मिश्रा
प्रकाशक- अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज
‘कुछ सुनती ही नहीं लड़की ‘के बाद वंदना मिश्र का दूसरा कविता संग्रह है’ ‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में ‘ दोनों काव्य संग्रहों के शीर्षक से स्पष्ट है कि वंदना मिश्र की कविताओं के केन्द्र में स्त्री है। वंदना मिश्र एक मध्यवर्गीय परिवार से आती हैं। उनकी कविताओं में मध्यवर्ग की स्त्री की सोच, उसकी जिन्दगी का यथार्थ और सामाजिक जीवन की विसंगतियां बहुत सहज और शांत तरीके से व्यक्त हुई है। वैसे भी वंदना मिश्र के व्यक्तित्व में अपने कवित्व को लेकर कोई झूठा दावा नहीं है, कोई अहंकार नहीं है और न ही किसी जुगाड़ तंत्र के सहारे प्रसिद्धि पाने की उनकी कोई ख्वाहिश है। वे प्रचार-प्रसार और आत्म विज्ञापन से बहुत दूर रहकर । कविताएँ लिखने में विश्वास करती हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में कोई शोर- नहीं है, कोई नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताओं में आदेश परक और उपदेश परक उक्तियाँ भी नहीं हैं। वे अधिकतर निजी जीवन की अनुभूतियों पर आधारित कविताएँ लिखती हैं। उस निजी जीवन में उनका घर-परिवार ज्यादा है। वंदना मिश्र की कविताओं में समाज उतना ही आ पाया है, जितना वह हमारे निजी जीवन को प्रभावित कर रहा है। वे पुरुष वर्चस्व वाली व्यवस्था को चुनौती भी देती हैं, तो उसमें आक्रोश की जगह विनम्रता ही मिलेगी। आज स्त्री अपने अधिकारों को लेकर जितना हमलावर है, वंदना मिश्र उससे प्रभावित हुए बिना बहुत सहज और स्वाभाविक प्रतिरोध पुरुष वर्चस्व के खिलाफ अपनी कविताओं के माध्यम से दर्ज कराती हैं। बहुत क्षुब्ध होकर उन्हें लिखना पड़ता है- “मेरी कविताएँ कुरुचिपूर्ण लगेंगी तुम्हें/मेरा संग्रह बकवास/पूरा इंतजाम है तुम्हारी व्यवस्था में/मेरे मिटने का।”
वंदना मिश्र अपनी कविताओं को लेकर कितनी सजग हैं, इसका अंदाजा उपर्युक्त पंक्तियों से लगाया जा सकता है। वे किसी भी कविता के लिए सहृदय आलोचक की माँग करती हैं। उनका मानना है कि पूर्वाग्रह से ग्रस्त कठोर हृदय व्यक्ति कविता का न तो सही-सही मूल्यांकन कर सकता है और न ठीक-ठीक रसास्वादन। उनके इस संग्रह में’ कविताएँ’ शीर्षक से एक कविता ही है, जिसमें वे यह नहीं बताती कि कविता में क्या होना चाहिए, क्या नहीं। वे सीधे कविता के आलोचकों से टकराती हैं और इस टकराव में एक बड़ी बात कह जाती हैं कि -” जब भी जाओ कविताओं के पास/ चेहरे से कठोरता का मुखौटा उतार/माँ की तरह कोमल होकर जाओ।”
बड़ी बात यह कि जैसे माँ अपने बच्चे के गुणों को बढ़ते देने में मदद करती है और दोषों को डाँट-फटकार कर नहीं पुचकार कर दूर करती है, उसी प्रकार आलोचक को भी चाहिए कि किसी नवागंतुक कवि की कमियों को दूर करे। हिन्दी की कवयित्री होने के नाते ही नहीं, बल्कि व्यापक हिन्दी समाज की भाषा के प्रति अपनी जागरूकता के चलते वंदना मिश्र दिन-ब-दिन हिन्दी की हो रही दुर्गति को लेकर काफी चिंतित हैं।’ गहनतम बेरोजगारी’ शीर्षक कविता में उनकी यह चिंता देखी जा सकती है। शीर्षक से तो लगता है कि बेरोजगारी की समस्या पर कविता में कुछ बातें होंगी, लेकिन संकेत मात्र से वे सभी बातें, जो बेरोजगार युवा मन में हो सकती हैं, वंदना मिश्र कहने में सफल हो गई हैं। प्रायः सभी यह मानते हैं कि कविता में सारी बातें खुद न कहकर कवि को चाहिए कि पाठक के लिए भी बहुत कुछ छोड़ दे। ऊंची डिग्री लेने के बाद पब्लिक स्कूल में पढ़ाना-यह हमारी शिक्षा व्यवस्था के खोखलेपन का एक उदाहरण है। आज लाखों की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो ऊंची डिग्रियां लेकर पाँच सात हजार मासिक वेतन पर पब्लिक स्कूलों में पढ़ाने के लिए विवश हैं। हिन्दी की पब्लिक स्कूलों में क्या स्थिति है, इसे वंदना मिश्र ने एक वाक्य में स्पष्ट कर दिया है कि बच्चे’ गौरवान्वित हैं हिन्दी न जानकर।’ इसे हम अपनी भाषा नीति की असफलता के रूप में भी ले सकते हैं। हम किसी भाषा से नफरत के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन इसके लिए कवि का चिंतित होना तो स्वाभाविक ही है कि कहीं हम अपनी मातृभाषा या अपनी बोलचाल की भाषा के मूल से ही न कट जायें।
वंदना मिश्र ऐसी कवयित्री हैं, जो दैनिक जीवन के सामान्य व्यवहार से कविता रच लेने की क्षमता रखती हैं।’ कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ संग्रह की पहली ही कविता है’ कुछ बेरोजगार लड़के।’ इस कविता में वंदना मिश्र का सामाजिक सरोकार हमें प्रभावित करता है। मेरी समझ से संग्रह की अत्यंत महत्त्वपूर्ण कविताओं में से यह एक ऐसी कविता है, जिसमें बेरोजगारी को लेकर कोई हायतौबा नहीं मचाई गई है। इसमें बेरोजगारों के प्रति किसी सहानुभूति या करुण विलाप का स्वर भी नहीं है। यहाँ देश में दिन-ब-दिन विकराल होती बेरोजगारी की समस्या को लेकर सामाजिक व्यवस्था या सरकारों पर कोई गहरी चोट भी नहीं की गई है, लेकिन बेरोजगार लड़के अपने अंदर की उदासी के बावजूद हमारे दैनिक जीवन को किस तरह आसान बनाते हैं, इसे वंदना मिश्र ने स्पष्ट किया है। किसी रचनाकार की सूक्ष्म निरीक्षण की शक्ति क्या होती है, इसे इस कविता में देखा जा सकता है। मेरी समझ से यह कविता वर्तमान व्यवस्था पर एक बहुत बड़ा व्यंग्य है। व्यंग्य, व्यवस्था विरोध का एक कारगर हथियार होता है। बेरोजगार लड़कों के पक्ष में खड़ा होना रचनाकार का व्यवस्था के विरोध में होना है। इस कविता में वंदना मिश्र अपने मध्य वर्ग की आलोचना भी करती हैं। इस आत्मालोचना से कवयित्री की ईमानदारी का पता चलता है, जिसका आज के कवि जीवन में नितांत अभाव दिखाई दे रहा है। बेरोजगार लड़कों की हमारे जीवन में क्या सार्थकता है, इसे कविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-
कुछ बेरोजगार लड़के न हों तो/ सूनी रह जाएँ गलियाँ/बिना फुलझड़ियों के रह जाये दीवाली/ बिना रंगों के रह जाए होली/ बेरौनक रह जाएँ सड़कें/ त्यौहारों का पता न चल पाये/बिना इनके हुड़दंग के/फुंके ट्रांसफार्मर दिनों तक न बनें, यदि ये नारे न लगाएँ/धरने-प्रदर्शन तमाशों के लिए हमेशा/हाजिर रहती है इनकी जमात।
इस कविता का एक ध्वन्यर्थ यह भी है कि नौकरी पेशा या रोजगार-धंधों में लिप्त लोग इतने आत्म ग्रस्त हो गये हैं, मानों उनका जीवन-रस किसी ने सोख लिया हो। वंदना मिश्र ऐसे लोगों की आत्मग्रस्तता से मुक्ति की मांग करती हैं। खिलंदड़ेपन के साथ लिखी गई यह कविता मानव जीवन की एक बड़ी विडंबना को उद्द्घाटित करने में कितनी सफल है, यह बताने की जरूरत नहीं।
मध्य वर्ग की कुंठाओं को व्यक्त करती वंदना मिश्र की एक कविता है’ शरीफ लोग ‘यहाँ शरीफ विशेषण में एक व्यंग्य है। हमारा समाज स्त्री को लेकर आज भी कितना पिछड़ा हुआ है कि जरूरत पड़ने पर उसकी मदद के लिए आने में संकोच करता है। उसके संग-साथ होना बदनामी को आमंत्रित करना है। यदि कोई नेकनीयत इंसान मदद कर भी दे तो तथाकथित शरीफ लोगों का बंद दिमाग जल्दी खुल जाता है और दोनों के प्रति कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त करने लगता है। इस कविता में एक स्त्री के मन की बेचैनी भी दिखती है जो चाहती है कि मदद करने वाले व्यक्ति को कृतज्ञता वश एक कप चाय या एक गिलास पानी ही मिला दे, लेकिन ‘लोग क्या कहेंगे’ के भय से मनमसोस कर वह ‘शरीफ लोगों’ की जमात में ही अपने को पाती है। मेरी समझ से आज मध्यवर्ग की पढ़ी लिखी स्त्री अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र हुई है। यहाँ वंदना मिश्र को इस बदलाव की पहचान करनी चाहिए थी। कविता के अंत में स्त्री यदि अपनी हिचक को तोड़कर शरीफ लोगों की जमात से अपने को अलग रख अपनी स्वतंत्र पहचान बनाती तो उसका प्रभाव ज्यादा सकारात्मक दिखता।
‘बातूनी दुनिया में बातें’ वंदना मिश्र की ऐसी कविता है, जो अपने समय के बड़े सवाल उठाती है। यह हम सभी का सामान्य अनुभव है कि ट्रेन में या बस में बातों के माध्यम से हमारा मेल-जोल होता है, भाईचारा बढ़ता है। आज की राजनीति ने उस भाईचारे को खत्म किया है। मूल्य केन्द्रित राजनीति जब से सत्ता केन्द्रित हुई है और राजनीतिक बहसों में आम जनता की समस्याओं की जगह जब से धर्म का प्रभावशाली हस्तक्षेप हुआ है, तभी से हमें ऐसी व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। वंदना मिश्र इस कविता में संकेत करती हैं कि आदमी का आदमी के प्रति अविश्वास बढ़ा है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि तथाकथित बुद्धिजीवियों ने महात्मा गाँधी और प्रेमचन्द को भी विवादास्पद बना दिया है। यहाँ विवादास्पद से तात्पर्य उन मानवीय मूल्यों से हैं, जिनके लिए महात्मा गाँधी और प्रेमचन्द जीवन भर संघर्ष करते रहे। कवयित्री की चिन्ता यह भी है कि जहाँ मनुष्य को गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और प्रदूषण से मुक्त एक स्वस्थ समाज की रचना करनी थी, वहाँ वर्तमान विश्व व्यवस्था के नियंत्रकों ने सीरिया, इराक की जनता को युद्ध में तथा देश के राजनेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के भँवर में अपनी जनता को ढकेल दिया है। विमर्शवादी बुद्धिजीवियों को कटघरे में खड़ी करती वंदना मिश्र की एक कविता है- ‘जैसे खेला जाता है।” इस कविता में उन्होंने ऐसे वक्ताओं की अच्छी खबर ली है, तो मंचों पर तो बड़ी बड़ी बातें करते हैं, लेकिन निजी जीवन में छोटा खतरा उठाने की हिम्मत नहीं दिखाते। कथनी-करनी में अन्तर के कारण हमारा बुद्धिजीवी समाज कितना अविश्वसनीय हुआ है, कवयित्री ने इसकी तरफ हमारा ध्यान खींचा है।
हमारे देश में शायद ही कोई सरकारी विभाग होगा, जहाँ भ्रष्टाचार अपने कुटिल हाथ के साथ मौजूद न हो। इसी को आधार बनाकर लिखी गई एक कविता है: ‘गर्ज यह है कि’ अपने स्वभाव के अनुसार वंदना मिश्र इस कविता में भी आत्म विश्लेषण करती हैं। प्राध्यापिका होने के नाते सामाजिक बुराइयों के लिए सारा दोष शिक्षकों पर मढ़ देने से ये क्षुब्ध हैं, लेकिन वे शिक्षा व्यवस्था की विसंगतियों पर चोट करने से नहीं चूकतीं। वे स्पष्ट रूप से रेखांकित करती हैं कि शिक्षा विभाग के साथ ही रेलवे, दूरसंचार, न्यायालय आदि के किसी कार्यालय में बिना रिश्वत के काम नहीं होता। हमारे देश में भ्रष्टाचार आज की तारीख में एक सर्वव्यापी शक्ति है। भ्रष्टाचार के नाम पर हमारे यहां सरकारें बनती-बिगड़ती हैं, लेकिन दफ्तर के बाबू और चपरासी के भ्रष्टाचार में तथा लाखों रुपया प्रति माह वेतन पाने वाले अफसर के भ्रष्टाचार में हमें फर्क करना चाहिए। राजनेताओं और बड़े-छोटे पूँजीपतियों का तो पूछना ही क्या। यह ऐसा मायालोक है, जिसकी हकीकत जानना सबके वश की बात नहीं। वंदना मिश्र ने इस कविता को बड़े सीधे-सपाट ढंग से लिखा है, ऐसा इसलिए क्योंकि आक्रामकता उनके स्वभाव में नहीं है। ‘आकस्मिक सामूहिक अवकाश’ में वे बाजार पर छींटाकशी करती हैं, जबकि बाजार अब एक भयावह रूप धारण कर चुका है। उसने हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। विज्ञापन, जो बाजार के लिए मध्यस्थ या दलाल की भूमिका में है, उस ओर भी हमारा ध्यान जाना चाहिए।
सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने कभी कहा था कि यदि छोटी-छोटी वस्तुओं, बातों या घटनाओं में आप की दिलचस्पी बढ़ने लगे, इसका मतलब कि आप में एक कवि होने की संभावना बलवती हो रही है। वंदना मिश्र की कविता ‘कालोनी में एक लड़का’ पढ़कर मुझे नामवर जी की बात याद आई।’ सिर पर ताजा सब्जियों का टोकरा और जेब में काँच की गोलियाँ’ इतने शब्द पर्याप्त हैं उस लड़के के जीवन की ट्रेजेडी को बताने के लिए। इस कविता के द्वारा वंदना मिश्र बताना चाहती हैं कि हमारे देश का बचपन संकट में है। एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 11 करोड़ बाल श्रमिक हमारे देश में हैं। हम उस व्यवस्था में जी रहे हैं, जिसने बच्चों के बचपन को छीन लिया है। इस कविता में सब्जी के लिए मोल-भाव करती स्त्रियों का यह कहना कि ‘कितना चालाक हो गया है, बड़े-बड़ों के कान काटता है’ यह भी एक वाक्य है तो साधारण, लेकिन अर्थ इसका बड़ा व्यापक है। बच्चे निर्मल हृदय होते हैं। उनकी हर गतिविधि आनन्दप्रद होती है, लेकिन इस कविता में लड़के का छोटी उम्र में ही चालाक हो जाना उसके हृदय के मासूम भावों को समाप्त हो जाना है। यह हमारे समाज के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
वंदना मिश्र के काव्य संग्रह ‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ की अधिकतर कविताएँ एक स्त्री की अनुभूतियों पर आधारित हैं। इनमें स्त्री के मनोविज्ञान को जांचा-परखा जा सकता है। इनमें पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध स्त्री की असहमति और असंतोष को भी देखा जा सकता है। एक माँ के रूप में, बेटी के रूप में, पत्नी के रूप में स्त्री पर किस प्रकार की बंदिशें हैं, वंदना मिश्र ने उन्हें अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। उनकी एक बड़ी मार्मिक कविता है- ‘माँ ने कभी सपना नहीं देखा था’। संग्रह की उत्कृष्ट कविताओं में इसकी भी गिनती होनी चाहिए। यहाँ एक बेटी की माँ के प्रति शिकायत दर्ज की गई है। यह कविता हमें सोचने के लिए विवश करती है कि क्यों हर माँ के मन में यह बैठा दिया गया है कि उसे बेटा ही चाहिए? क्या इसलिए कि बेटी की अपेक्षा बेटे के हाथों में ताकत ज्यादा होती है या हमारे समाज में बेटी घर से बाहर आजादी के साथ उस तरह नहीं रह सकती जिस तरह बेटा रहता है। बेटे और बेटी की आजादी को लेकर दो तरह का व्यवहार किस कारण हुआ? हमने किस मिजाज़ का समाज निर्मित किया है कि एक स्त्री को घर में या बाहर हर क्षण डर लगता रहता है। वंदना मिश्र की कविता से इस प्रकार के कई सवाल उठते हैं। उन्होंने बहुत आहत होकर लिखा है-
“मां ने कभी सपना नहीं देखा था/ मेरे लिए/पर मैं आ गई भाई से पहले/ सब जगह मैं भाई से पहले/माँ के मन को छोड़कर।”
कर्मक्षेत्र में लड़की हमेशा भाई की अपेक्षा अव्वल रहती है, फिर भी माँ उसके बड़े व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाती। बेटी अपने व्यक्तित्व के ‘महावृक्ष की शीतल छाया माँ को देना चाहती है, लेकिन माँ उसे भी स्वीकार नहीं करती। यहाँ आप अंदाजा लगा सकते हैं कि शायद अपने स्वाभिमान के चलते माँ बेटी का कुछ भी स्वीकार नहीं करती, लेकिन हमारी सामाजिक व्यवस्था ने इसका संबंध धर्म से जोड़ दिया है कि किसी भी परिस्थिति में बेटी का कुछ भी लेना पाप है। कविता की अंतिम दो पंक्तियाँ बहुत गहराई से हमें प्रभावित करती हैं, जब वंदना मिश्र कहती हैं- ” और मैं, इस महावृक्ष को लेकर क्या करूँ? जो माँ को शीतल नहीं कर सकता।”
यहाँ ‘मैं ‘के बाद प्रयुक्त अर्द्धविराम उस विषाद की स्थिति का सूचक है, जब आदमी को चाहकर भी कुछ न कर पाने के लिए विवश होना पड़ता है।
संग्रह की एक कविता है’ हमें बचपन से।’ आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस लड़की के दिमाग में बचपन से ही यह भरा जाता हो कि यह घर तुम्हारा नहीं है, उसे किस दारुण मनःस्थिति से गुजरना पड़ता होगा। पहले तो हालत यह थी कि लड़की डोली में बंद होकर ससुराल पहुँच जाती थी और पाँच-सात वर्षो बाद कुछ दिनों के लिए अपने मायके आती थी। अब स्थितियाँ बदली हैं। सूचना तकनीक ने मायके और ससुराल की दूरी को कम किया है। फिर भी, मन में एक टीस तो बनी ही रहती है कि जिस माता पिता, भाई बहन के साथ हँस खेलकर लड़की बड़ी हुई है उसे कैसे भुला दे। किसी लड़की की इच्छा को परिवार और समाज किस तरह मार देता है, वो वंदना मिश्र ने ‘बड़ी निपुण थी बेटी’ कविता में स्पष्ट किया है। हमारे समाज में अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो प्रतिभा संपन्न बेटियों को शादी-विवाह, घर-गृहस्थी की सीमा में रखने के हिमायती हैं। इस कविता में पढ़ाई लिखाई, खेल-कूद में प्रवीण उस लड़की के व्यक्तित्व को रेखांकित किया गया है, जो आई.ए.एस. बनकर पूरी व्यवस्था को बदलने का हौसला रखती थी, लेकिन अंततः अच्छे घर और अच्छे किचन तक ही उसकी सीमा निर्धारित कर दी जाती है। हमारे देश में ऐसी अनगिनत लड़कियाँ हैं, जो इस प्रकार के प्रतिभा-हनन के कारण घुट-घुट कर जीने के लिए विवश हैं।
“कैसी लड़की थी वह जो सिर्फ जीती रही भरपूर
जीवन अपनी तरह
उसने परवाह नहीं की लोगों की,
हाँ लोग ही परेशान रहे
उसे नये नये साँचे में फिट करने में
और हर मजबूत साँचा टूटता रहा
उसकी खिलखिलाहट से”
वंदना मिश्र की ‘वह एक ऐसी लड़की थी ‘कविता की ये उक्त पंक्तियाँ हैं, जो समाज को चुनौती देने वाली एक आज़ाद ख्याल की लड़की का चित्र प्रस्तुत करती हैं। पुरुष समाज वर्चस्व वाला हर समाज लड़की के लिए समय-समय पर अपनी आचार संहिता तैयार करता है। यदि लड़की आचार संहिता का उल्लंघन करती है तो उसे कई प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। लेकिन आज लड़की इस काबिल अपने को बनाना चाहती है कि समाज द्वारा बनाया गया हर साँचा वह तोड़ सके। हम जानते हैं कि हमारा समाज बहुत जटिल है। यहाँ स्त्री की आजादी को समर्थन देने वाली शक्तियों की आवाज बहुत कमजोर है। वे लोग ज्यादा ताकतवर हैं, जो आज भी स्त्री को पुराने नजरिए से देखते हैं। वंदना मिश्र अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसे भावी समाज की कल्पना करती है, जिसमें स्त्री समर्थ, सक्षम और स्वतंत्र होगी। अपनी कई कविताओं में कवयित्री प्रेम करती स्त्री के पक्ष में खड़ी है। इससे स्पष्ट है कि उसे स्त्री के बदलते हुए मिजाज की पहचान है। कुछ कविताओं में वंदना मिश्र ऐसे पुरुष को फटकार लगाती हैं, जिसे प्रेम करती स्त्री ‘फाहशा’ लगती है। उनका मानना है कि ‘बेटियाँ होती हैं माँ की तरह और बनना चाहती हैं पिता की तरह।’ यहाँ यह सवाल हो सकता है कि बेटियाँ किस पिता की तरह बनना चाहती हैं? क्या उसी पिता की तरह जो ‘माँ’ पर शासन करता है और बेटियों को रहने का ढंग न सिखाने के लिए माँ’ को लताड़ता रहता है? कविता संग्रह में कई कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें पिता के भिन्न-भिन्न रूपों के ‘दर्शन’ होते हैं। ‘पिताजी मेरे आदर्श थे ‘ कविता में ऊँचे दमकते ललाट वाले सारे ज्ञान से भरे पिता के विषय में वे लिखती हैं-
“अब पिता के प्यार के बावजूद
मैं उनकी तरह पति नहीं चाहती थी
मुझे ज्यादा उपयुक्त चाचा लगे
जो रसोई में रहते थे चाची के साथ
और झगड़ते थे दोनों बैठक में
तुरन्त आये अखबार के मुखपृष्ठ के लिए।”
उपर्युक्त कविता में वंदना मिश्र मध्यवर्गीय स्त्री-पुरुष के जीवन में घर कर रही उस असहय चुप्पी और तनाव की ओर इशारा करती हैं, जिसे उन्होंने माता-पिता के बीच महसूस किया था। वे गृहस्थ-जीवन की जीवंतता की पक्षधर हैं, भले ही उसमें थोड़ा लड़ाई-झगड़ा भी हो। मेरी समझ से खुलकर लड़-झगड़ लेना भी मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है, क्योंकि इससे स्त्री-पुरुष के संबंधों में कोई मुश्किल-सी लगने वाली गाँठ नहीं बन पाती। गृहस्थ-जीवन की जीवंतता के प्रति आग्रह के चलते ही वे चाचा के स्वभाव को ज्यादा पसंद करती है। इसी मिजाज की एक कविता है- ‘जिस दिन लगा’ इस कविता में पति-पत्नी या कह लीजिए कि प्रेमी-प्रेमिका में खूब नोक-झोंक होती है, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं, लेकिन अंततः स्त्री को कहना पड़ता है कि “जिया ही नहीं जा सकता तुम्हारे बिना/आने में बहुत देर लगा रहे हो तुम।”
ऐसी ही एक प्रेम कविता है- ‘तुम नहीं हो।’
लगता है, जैसे वंदना मिश्र ने अपने जीवन की प्यारी-प्यारी अनुभूतियों को बिना किसी भाषाई चमत्कार के अनायास ही व्यक्त कर दिया है। यहाँ कल्पना भी यथार्थ रूप धारण कर सहज अभिव्यक्ति पा गई है। यह प्यार के हर क्षण को खूब ठीक से जीने की कविता है। यह ऐसी कविता है जो सारी विसंगतियों के बावजूद जीवन को जीने की कला सिखाती है।
करुणा भाव से युक्त वंदना मिश्र की दो कविताओं का जिक्र करना यहां मुझे जरूरी लग रहा है। एक है’ पिता का हाथ ‘इस कविता में संयुक्त परिवार के टूटने की कथा है, साथ ही यह जामुन के उस पेड़ की भी कथा है, जिसका फल मोहल्ले भर के लोग खाते थे। जिस घर की पहचान जामुन के पेड़ से होती थी, बँटवारे के बाद उसे काटकर उसकी जगह एक कमरा बनवा दिया जाता है। इस कविता में दो पीढ़ियों की सोच के फर्क को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। करुणा भाव की दूसरी कविता है- ‘माँ ने कभी उफ नहीं किया ‘
वंदना मिश्र ने इस कविता में माँ के यथार्थ रूप को हमारे सामने रखा है। यहाँ यथार्थ और आदर्श एक दूसरे से घुल-मिल गये हैं। वंदना मिश्र ने माँ के संदर्भ में यहाँ कुछ अच्छी उपमाओं की सृष्टि की है। उन्होंने लिखा है कि “माँ जरूरत पड़ने पर /चट्टान की तरह खड़ी हो जाती थीं हमारे लिए/ दु:खों की बारिश में /छाते की तरह ओढ़ लेते थे /हम माँ को।”
इस प्रकार वंदना मिश्र ने पारिवारिक जीवन पर आधारित कई महत्वपूर्ण कविताएँ लिखी हैं। अपनी प्राय: हर कविता के लिए उन्होंने अभिधा शब्द शक्ति का प्रयोग किया है। ये कविता में पूरा वाक्य लिखती हैं। कविता के लिए भारी भरकम शब्दों से उन्होंने परहेज किया है। विशेषणों के बोझ से भी उनकी कविता मुक्त है। आसान से लगने वाले शब्दों, वाक्यों से गंभीर अर्थ निकाल लेना यह पाठक की क्षमता पर निर्भर करता है। उनकी कई कविताएँ बातचीत की शैली में लिखी प्रतीत होती हैं। उनका कविता संग्रह हमारे समय और संबंधों को व्याख्यायित करता है।