पुस्तक- पंचफोरन की सुगंध
लेखिका- माला सिंह
समीक्षक- वंदना पराशर
माला सिंह जी का कहानी संग्रह ‘पंचफोरन की सुंगध’ को पढ़ते हुए कविवर राजेश जोशी जी की कविता ‘दो नन्हे मोज़े’ की पंक्ति याद हो आई। “बहुत छोटी और साधारण चीज़ों में ही बचा है शायद इतना अपनापन और इतनी गुदगुदी” अक्सर ही हम अपने जीवन में छोटी-छोटी बातों को, घटनाओं को मामूली सी बातें कहकर नज़रंदाज़ कर दिया करते हैं, वहीं माला सिंह जी की गहरी और पैनी नजर असल जिंदगी इन्हीं छोटी-छोटी बातों और घटनाओं में देखती है और अपनी सहज और सरल भाषा शैली में उसे कहानी के रूप में कहती है। आम बोलचाल की भाषा शैली में लिखी उनकी कहानियां दिल को छू जाती है और कहानी अपनी सी लगने लगती है।
पंचफोरन की सुंगध में कुल चौबीस कहानियां है और सभी पठनीय है। संक्षेप में यहां हम उनकी कुछ कहानियों पर गौर करें तो हम पाते है कि लेखिका जहां घर-परिवार की छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर सुंदर कहानियां गढ़ती हैं, वहीं समाज में फैली विद्रूपताओं पर भी करारा तंज़ कसती है।
डबल प्रमोशन कहानी की अवस्थी जी का कथन कि “ज़रुरत पड़ने पर गधे को भी बाप कहना पड़ता है” आज हम भले ही आधुनिक होने का तमगा लटकाए डोलते रहते हैं किन्तु सच्चाई तो यही है कि हम आज भी मानसिक रुप से पिछड़े हुए हैं। दकियानूसी विचारों, जातिगत भेद को अपने मन से निकाल नहीं पा रहे है। अवस्थी जी जैसे पढ़ें लिखे लोग भी रनिया के काम करके जाने के बाद अपने पूरे घर का शुद्धिकरण गंगाजल छिड़ककर करवाते है।
‘संगत का असर’ कहानी में लड़की और लड़के के बीच भेदभाव का बीज किस तरह उसके पैदा ही उसके अंदर डाला जाता है, यह हम इस कहानी में देख कर सकते है।
‘हम काले हैं तो क्या हुआ’ कहानी का कहन काबिलेतारिफ है, कहानी जहां हास्य रस में कहीं गई है, वहीं समाज में व्याप्त रंगभेद पर भी तंज़ कसती है।
कहना न होगा कि लेखिका की कहने का अंदाज़ कहानी को और भी पठनीय बनाती है। आम पाठकों के दिल में अपनी पहुंच बनाने का मद्दा रखती है उनकी कहानियां। माला जी जितनी संवेदनशील कथाकार हैं, उतनी ही सजग नागरिक भी। समाज में फैली विकृतियां का जितनी सूक्ष्मता से देखती है उतने ही साहस के साथ उसे अपनी लेखनी में कहती भी है।