समीक्षक- वंदना पराशर
कविता संग्रह- दर्ज होते ज़ख्म
कवयित्री- सरिता सैल
प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
सरिता सैल जी की कविताओं को मैं लम्बे समय से पढ़ती रही हूं। उनकी कविताओं में विविधता देखने को मिलती है। हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘दर्ज होगें ज़ख़्म’ से गुजरते हुए जिस बात ने मेरा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट किया, वह है- कवयित्री के अनुभव क्षेत्र का विस्तार।
सच कहना और लिखना, तलवार की धार पर चलने जैसा है। सरिता सैल यह मद्दा रखती है। वह अपनी बात निर्भिक होकर अपनी कविताओं के माध्यम से कहती है। अपनी कविता ‘युद्ध’ में वह कहती हैं- युद्धों की रणनीतियां/ तय की जाती रही है/हमेशा से/ ऊचें असमानों पर बैठकर, इसी कविता में आगे लिखती हैं- राजा के लिए मृत सैनिक/मात्र गिनती के अंक बनकर रह जाते। (वहीं) शीर्षक ‘कुर्सी’ कविता पढ़ते हुए अनायास ही धूमिल की कविता ‘रोटी और संसद’ को पढ़ने का आभास होता है।
कुछ लोग कुर्सी के ऊपर बैठे हैं/कुछ लोग कुर्सी के नीचे बैठे हैं/कुछ लोग कुर्सी को घेर रखा है/आगे देखिए- और एक भीड़ ऐसी भी है/जिसने कभी कुर्सी देखी ही नहीं है/पर कुर्सी के ढांचे में जो कील ठोंकी गई है/वो इसी भीड़ के पसीने का लोहा है। (इस कविता का अनुवाद अंग्रेजी, पंजाबी और मराठी भाषा में हुआ है)।
इसी किताब में “मेरी बात” में सरिता सैल कहती हैं “राजनीति की सड़कें मुझे हमेशा से स्वार्थ में लिप्त ही मिली। सुधार कुर्सी पर बैठे चंद नेताओं से नहीं, कुर्सी के नीचे संभावनाओं की जमीन के आस में बैठे हाथों से ही मुमकिन है। कवयित्री की चिंता वाजिब है। समाज में व्याप्त विसंगतियों, राजनीति में गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर भ्रष्ट तंत्रों के प्रति कवयित्री में गहरा आक्रोश है। सरकार, राजनीति, तुम्हारी ख़बर, घोषणा पत्र, धर्म बनाए का तराजू बन गया है आदि कई ऐसी कविताएं है जिसमें कवयित्री की पैनी दृष्टि भ्रष्ट शासन तंत्र का पोल खोलती है।
सरिता सैल की कविताओं में रिश्तों में प्रेम सागर की गहराई की तरह अकूत है वहीं प्रेम में छले जाने पर गहरी वेदना भी है लेकिन टूटन नहीं। प्रेम में छली गई स्त्रियों का टूटकर बिखर जाना कवि को मंज़ूर नहीं है, बल्कि अपने आत्म सम्मान को बनाए रखने के लिए साहसिक निर्णय लेने की क्षमता स्त्रियों में हो के पक्ष में खड़ी रहती है। ‘स्त्रियां’ कविता में सरिता सैल कहती हैं- स्त्रियां चखी जाती है/किसी व्यंजन की तरह/उन्हें परखा जाता है/किसी वस्तु की तरह/उन्हें आजमाया जाता है/किसी जड़ी बूटी की तरह, कविता पढ़ते हुए कोई भी संवेदनशील हृदय वेदना से भर उठेगा।
फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बोउवार का मानना है कि “स्त्री पैदा नहीं होती है बनाई जाती है।” यह विडंबना ही है कि स्त्रियों को पितृसत्तात्मक समाज में मनुष्य तो दूर दोयम दर्जे का समझा जाता रहा है। जो अधिकार पुरुष को सहजता से मिला है, उसी अधिकार को पाने के लिए स्त्रियों को कठोर संधर्ष करना पड़ता है। कवयित्री को इस बात का संतोष है कि धीरे-धीरे ही सही स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति सजग और साकांक्ष है। वे मेहनत से नहीं घबराती है निरंतर संधर्षरत रहकर अपने हिस्से की जमीन हासिल कर रही है। रोशनी का एक टुकड़ा शीर्षक कविता में सरिता सैल लिखती हैं- अंधेरे से लड़कर/जीत आई है वह/रोशनी का एक टुकड़ा।
कहना न होगा कि सरिता सैल की कविताओं में स्त्रियां परिस्थितियों से समझौता कर चुप्पी का चादर नहीं ओढ़ती बल्कि अपने अस्तित्व को पाने के लिए संघर्षरत रहती है। तलाक मांगती औरतें, बदनाम गलियों में, वो लड़की, औरत की जात बिकाऊ नहीं होती आदि ऐसी कविताएं हैं, जिसमें स्त्री का मजबूत रुप उभरकर सामने आता है। साथ ही उन तमाम पुरुषों के लिए एक प्रश्न छोड़ जाती है ‘औरत केवल देह मात्र है? ‘
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित इस कविता संग्रह में 75 कविताएं है। तेजी से बदलते समय और समाज को सरिता सैल बेहद करीब से देखती, महसूस करती है और अपनी कविताओं के माध्यम से कहती है। सहजता से अपनी बातें सरल भाषा में कह जाना सरिता सैल की खासियत है और यही खासियत कवि को आम पाठकों से जोड़ती है। यह कविता संग्रह पठनीय है। सरिता सैल की कविताएं ठहरकर पढ़ने की मांग करती है। कवयित्री के शब्दों में कहें तो, नदी को समझने के लिए पानी होना पड़ता है। सरिता सैल हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।