पुस्तक- खिड़की जितनी जगह
लेखिका- डॉ वंदना मिश्रा
समीक्षक- चित्रा पंवार
विधा- काव्य संग्रह
प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
पृष्ठ संख्या- 114
मूल्य: 200 रुपए
बकौल रामधारी सिंह दिनकर ‘कविता वह सुरंग है जिसके भीतर से मनुष्य एक विश्व को छोड़कर दूसरे विश्व में प्रवेश करता है’। प्रत्येक कवि की अपनी एक अलग दुनिया होती है, जिसे वह अपने मस्तिष्क के करघे पर संवेगों के धागे से, शब्दों के ताने बाने पर बुनता है। कविता बुनना बहुत बड़ी साधना का काम है, संवेदना एवं भाषा का धागा टूटा नहीं कि पूरी कविता बिखरते देर नहीं लगती।
निश्चित ही इस बुनी जा रही दुनिया में लेखक के आस-पड़ोस, परिवेश, बचपन की स्मृतियों, संबंधों की गहरी छाप मौजूद रहती है। समीक्षक एवं कवयित्री डॉ वंदना मिश्रा जी का कुछ माह पूर्व प्रकाशित तीसरा कविता संग्रह ‘खिड़की जितनी जगह’, में उनका परिवेश, बचपन, स्त्रियोचित गुणों, शिक्षा तथा लेखकीय परिपक्वता का संजीदगी एवं संतुलन के साथ प्रयोग किया गया है।
लेखिका शीर्षक कविता ‘खिड़की जितनी जगह’ में कहती हैं कि
‘दीवारें नहीं टूटती
पर महिलाओं ने
हमेशा बना रखी है
एक खिड़की जितनी जगह
प्रेम के लिए,
यकीनन यह खिड़कियां ही वह सुरंग हैं जिनकी बात रामधारी सिंह दिनकर करते हैं, यही हैं जो प्रेम और घृणा के दो अलग-अलग लोकों के बीच पुल का काम कर रही हैं तथा इस पुल की जन्मदाता है स्त्री।
यह खिड़कियां ही कराती हैं स्त्रियों से उनके आसमान का मिलाप, इन्हीं खिड़कियों से तलाशती हैं वह नाउम्मीदी के अंधकार में उम्मीद की एक रोशनी तथा इन्हीं खिड़कियों के सहारे वह धीरे-धीरे तोड़ रही हैं, अपनी कैदशाला की मजबूत सलाखे-
‘लोगों के स्वाभिमान को
कुचल कर
अपने पैरो तले जो
पिरामिड़ बनाया तुमने।
किसी दिन उसी की सीढ़ी बना
दुःख तुम तक पहुंच जाएगा
और तुम्हारे कद से ऊँचा
हो जाएगा।’
संग्रह की पहली कविता ‘एक दिन’ आठ पंक्तियों की आकार में छोटी किंतु अर्थ विस्तार में व्यापक एवं गूढ़ कविता है। इस कविता को पढ़ते हुए शिशुपाल को चेतावनी देते कृष्ण का अनायास ही स्मरण हो आता है।
संग्रह की कविता ‘दुःख’ (पृष्ठ संख्या 10) में पराए सुख को देखकर उपजी ईर्ष्या जनित पीड़ा के दर्शन होते हैं-
‘सुखी लोगों का दुख ये भी
हो सकता है
कि जितने कोण तक
चाहिए थी,
उतनी नहीं झुकी दुखी लोगों की कमर’,
वहीं दूसरी ओर संग्रह की एक अन्य कविता ‘वो जो सांसों के साथ–साथ चलता है’ (पृष्ठ संख्या 73) में दुःख की अलग रंग-ढंग की परिभाषा दी गई है-
‘वह जो सांसो के साथ-साथ चलता है
लिपटा हुआ, चेतना से
बहुत चाहने पर भी
निकल नहीं पाता मन से,
सच कहें तो उसे ही दुख कहा जा सकता है’।
गीत चतुर्वेदी जब कहते हैं कि ‘प्रेम में डूबी स्त्री का चेहरा बुद्ध–सा दिखता है’ उस समय मन में एक विचार कोंधता है कि क्या स्त्री के संपूर्ण जीवन में कोई ऐसा पल आता भी है जब वह प्रेम में नहीं होती, कभी माता-पिता, कभी पति, कभी प्रेमी तो कभी संतान या फिर कोई और, उसके प्रेम के केंद्र में रहता ही है, शायद इसीलिए स्त्री सदा, दया और प्रेम में दीप्त बुद्ध समान ही दिखाई देती है।
‘तुम्हारे तीरों के जवाब में’ कविता (पृष्ठ संख्या 11)कुछ ऐसी ही जमीन पर लिखी गई कविता है-
‘तुम्हारे तीरों के जवाब में फेंकना था
एक तीखा भाला तुम्हारी तरफ
मैंने गुस्से में खोला अपना शस्त्रागार
पर वहां सिर्फ आंसू, फूल और दुआएं थी’
‘अम्मा का बक्सा’, चना दाल की पूरियां, विधान, अधूरी मां, अब मां को तो आदत है रोने की, कविताओं के केंद्र में माँ है, मां की स्मृतियों, माँ के दुःख, मां से बिछड़ने का दुःख तथा मां के लिए अपार स्नेह है, शायद यही कारण है कि पाठक इन कविताओं में स्वयं को खोजने लगता है और अंततः इनसे प्रेम कर बैठता है, उपर्युक्त कविताओं से कुछ अंश देखें-
‘मां नहीं रही
उनकी विदाई और हमारे स्नान के बाद
सबको नीम की पत्तियां दी गई
कि खा कर कहो
कि “अम्मा हमसे तीती हो जाओ”
लेकिन आज नीम की पत्ती भी
मीठी ही लग रही थी
तो मां कैसे तीती हो सकती है!’ (कविता ‘विधान’ से, पृष्ठ संख्या 111)
परिवार के बिखराव का बुजुर्ग मां-बाप पर क्या असर पड़ता है, उसी आघात को बयान करती बूढ़ी मां के विलाप में डूबी यह पंक्तियां गहरे प्रश्न छोड़ जाती हैं-
‘ मां को क्या पता न्यूक्लियर फैमिली की परिभाषा
वह हर बार इस बात पर रो देती है
कि मेरा परिवार इतना छोटा कैसे हो गया।’
यह भी-
‘मां एकता देखना चाहती है और
उसे कोसने में एक हो जाते हैं बेटे।’
( दोनों अंश ‘अब मां को तो आदत है रोने की’ कविता से, पृष्ठ संख्या 57)
अपने संग्रह में डॉ वंदना मिश्रा जी प्रेम के चंद्रमा रूप के साथ उपस्थित हैं, जिसका एक पक्ष उजला है तो वहीं दूसरा पक्ष गहरे अंधकार से ढका हुआ।
संग्रह की, ‘हमारी मंजिल, प्रेम, मुझे पता ही नहीं, तुम्हारा नाम मेरी प्रेमिका से क्यूं मिलता है?, जब जरूरत हो पुकार लेना आदि कविताएं प्रेम के मुलायम, मासूमियत भरे अहसास के साथ मौजूद हैं तो वहीं दूसरी तरफ, ‘तुमने कहा, तुमने प्रेम कहा, कुछ लड़कियों पर प्रेम, नर्म दूब पर, मैं तुम्हें घृणा उपेक्षा नहीं सिखा रही हूं, एक सौ आठ, वो क्या था, यूं तो तुम्हारी याद में, तुमने कहा, खोज आदि कविताओं में दिखावटी प्रेम में छले जाने की उदासी है।
मैं इस संदर्भ के पक्ष में यहां संग्रह की प्रेम कविताओं के कुछ अंश प्रस्तुत कर रही हूं-
‘पीपल का पेड़ होता है प्रेम
किसी भी जगह उग जाने वाला
गुनाह है, पाप है, हमारे समाज में
पीपल को काटना,
और प्रेम को?
पनपने देना!’ ( पृष्ठ संख्या 38)
यह पंक्तियां भी उल्लेखनीय हैं-
‘वो क्या था
जिसे मोहब्बत के नाम पर सुनाते रहे तुम
जिसमें सब कुछ था मोहब्बत के सिवाय’( पृष्ठ संख्या 61)
संग्रह के हिस्से में स्त्री केंद्रित सशक्त, विचारशील, बौद्धिक, संवेदनात्मक तथा सूझबूझ से भरी कई मार्का कविताएं आई हैं, इन सभी रचनाओं का हर एक पक्ष उतना ही प्रबल, उतना ही निखरा हुआ, उतना ही बुलंद, निडर है ( जितने की अन्य पक्ष हैं)।
कहना न होगा कि ‘सिकुड़ती जा रही है आकाश की परिधि’( पृष्ठ संख्या 25), कविता नित नए कीर्तिमान स्थापित करती बेटियों की कामयाबी के जश्न में डूबे गीत जैसी है-
‘डरती लड़कियां धीरे-धीरे
काबिज़ हो रही हैं
अंतरिक्ष पर,
और सिकुड़ती जा रही है
आकाश की परिधि
विस्तार से लड़की के।’
शिक्षा, समझ एवं अनुभव के सहारे अपने मस्तिष्क को विस्तार देती स्त्री, आदर्श बहू, आदर्श बेटी, आदर्श गृहिणी की खोखली उपमाओं पर रिझती नहीं अपितु प्रश्न करती है-
‘क्या करेगी वह ऐसा गृहिणी पद लेकर?’ (पृष्ठ संख्या 39)
वह समाज के दोगलेपन पर आहत भी है तो क्रोधित भी-
‘सुबह के भूले पुरुष को
भूला नहीं कहते
पर सुबह की भूली स्त्री को बाजारू
शाम नहीं बस रात आती है उसके जीवन में!’
(कविता- ‘सुबह का भूला’, पृष्ठ संख्या 62)
स्त्री केंद्रित कविताओं में- योगदान, सुंदरता, लोगों का दोष नहीं, मंगल खराब था, मना ऐसे भी किया जाता है, वो सात दिन, चलती रही, जायकेदार, उसका जाना, अलग-अलग परिस्थितियों पर लिखी गईं पढ़े जाने योग्य कविताएं हैं।
साझेदार कविता में जब कवयित्री लिखती हैं कि
‘पिता के बनाए मकान का
एक इंच भी नहीं मेरा
पर उनके लगाए
अनगिनत पेड़ों की स्मृति पर
सिर्फ़ मेरा हक़ है’ (पृष्ठ संख्या 31)
एक सुख महसूस होता है कि संबंधों में पैर पसारते व्यापार की आज की दुनिया में भी बेटियां पिता की विरासत नहीं वरन् सुखद स्मृति की पोटली भर विरासत की ही लालसा रखती हैं!
‘फेसबुक’ वर्चुअल दुनिया पर हास्य-व्यंग की शैली में लिखी गई रोचक कविता है।
खुद को श्रेष्ठ एवं सर्वशक्तिमान साबित करने की होड़ में लगी , विस्फोटकों के सर्वनाशी ढेर पर बैठी दुनिया की मार्मिक रपट ‘ ठीक उसी समय’ कविता को पढ़ते समय भीतर कुछ बिखरता सा महसूस होता है, कविता की कुछ पंक्तियां पेश हैं–
‘और पृथ्वी की कोमल छाती पर
गिरा एक बम,
किसी मासूम बच्ची–सी
टुकुर–टुकुर ताक रही है पृथ्वी’ (पृष्ठ संख्या 43)
आम आदमी, हितैषी, कोई एक दिन, शख्सियत, उदासी, इनकार, ग्यारहवां पुत्र, नाचना, कविताओं को पढ़ते हुए सामाजिक व्यवस्था को देखने की समझ ओर बेहतर होती है।
‘खिड़की जितनी जगह’ सतहत्तर छोटी बड़ी कविताओं का पठनीय संग्रह है।
पूरे संग्रह में भावों की तरलता, भाषा की सहजता तथा पठनीयता का क्रम निरंतर बना रहता है। संग्रह की कविता ‘किसी लोकगीत में’ के कथन ‘न स्त्री की कोई भाषा है, न मित्र’ से असहमत होते हुए मैं कहना चाहूंगी कि डॉ वंदना मिश्रा जी की अपनी बनाई, कमाई हुई, सुंदर, सशक्त भाषा है, वंदना मिश्रा जी अपनी भाषा गढ़ चुकी हैं।
यह उनका तीसरा काव्य संग्रह है, कवयित्री का अपना एक बड़ा पाठक वर्ग है जो कविताओं में उनकी गागर में सागर भर देने की कुशलता से बना और बंधा हुआ है।
हिंदी कविता जगत में संग्रह का स्वागत है। डॉ वंदना मिश्रा जी को बधाई एवं शुभकामनाएं!
अंत में-
‘जब तुम्हारी कविता पढ़
कोई कहे कि
बहुत सुन्दर हो तुम!’