अर्चना व्यास
शांतिपुरा, अजमेर
युद्ध जवानी में नही बुढ़ापे में लड़े जाते है
ये युद्ध गुपचुप से होते है,
गुपचुप से आसूं बहते है,
गुपचुप सी आहे निकलती है,
चुपचाप खुद ही खुद के आंसू पोंछ लेते है
यह जो बुढ़ापा है किसी को दिखाने का नहीं होता
यदि दिखा दिया जाए तो बेचारा बना दिया जाता है
कुछ लोग हंसते हैं, कुछ लोग मुस्कुराते हैं,
और कुछ लोग यह सोचते हैं कि जैसे
उनको तो बुढ़ापा फिर कभी आएगा ही नहीं
सरकार भी नौकरी से निकाल देती है,
यदि पेंशन दे तो ठीक, आधी दे तो ठीक,
चौथाई दे तो ठीक, नहीं दे तो
बुढ़ापा लड़ता है उस पेंशन के लिए,
क्योंकि बुढ़ापे में ही तो पैसा ज्यादा
काम आता है इलाज के लिए और,
मदद जब लेनी पड़ती है तो जिंदगी
एक हारा हुआ युद्ध बन जाती है
मैं वो हारा हुआ युद्ध बनना नही चाहती
इसलिए मैं आज भी युद्ध कर रहती हूं,
कुछ कमाने, अपने पांव पर खड़े होने के लिए,
पांव डगमगाते है, ऐसा लगता है कि,
आठ महीने की उम्र वापिस लौट आई है
जब जमा जमा कर पांव चलाना सीख रहे थे
आज भी चलना सीख रहे है, तभी तो कहा जाता है,
बुढ़ापा बचपन का दूसरा रूप होता है ।
बचपन में आशा होती है और
बुढ़ापे में निराशा होते हुए भी आशान्वित होकर लड़ना होता है
बस यही फर्क है बचपन और बुढ़ापे में ।
बचपन को निराशा पता नही होती और,
बुढ़ापा निराशा जानते हुए भी आशान्वित होता है ।
आशान्वित होता है…. आशान्वित होता है ।
मैं लडूंगी, लेकिन मुझे पता है कि अगर नही लडूंगी तो,
न जाने कितने और साल यूंही यूंही हंसी का और दया का पात्र बनूंगी
मुझे नही बनना, न तो हंसी का, न तो दया का पात्र
मुझे सिर्फ आत्मसम्मान के साथ इस दुनिया से विदा लेनी है
विदा लेकर चली जाऊंगी तब, सबको शायद यह लगेगा कि
मैने उनके ह्रदय को छुआ और
वो मेरा पता शायद हवाओ में ढूंढेंगे
मिलूंगी नही, क्यूंकि जाने वाले,
पंचतत्व में विलीन होने वाले, पंचतत्व में खो जाते है,
फिर न मिलने के लिए
याद आऊंगी, पछतावा होगा,
मगर फिर कुछ कर नही पाएंगे,
क्योंकि जब कर सकते थे तब किया नही
और अब जब नही रहूंगी, तब बहुत पछतावा होगा
कि जिसने इतना कुछ किया उसके लिए,
इतना भी क्या कुछ नही कर पाए हम
इतना भी क्या कुछ नही कर पाए हम