वंदना सहाय
शहरों में तो अब रहने से डर लगता है
कि जंगल ही अब शहरों से बेहतर लगता लगता है
न जलेंगे गरीबों के चूल्हे तो क्या हुआ
जो न हुई अमीरों की दीवाली तो कहर ढहता है
क्या ख़बर होगी उसे दुनिया की ख़बरों की
जो बस दो रोटियों पर ही नज़र रखता हो
ऐसे ज़ख्म दिये थे उन्होंने हमें किसी वक्त
आज भी दिया मरहम उनका नश्तर लगता है
पिघलता था बन मोम जो कभी मेरे लिए
फेरकर नज़रें अब बना पत्थर रहता है
मुद्दतों से रहते आए हैं जिस शहर में
अनजाना-सा फिर भी वह शहर लगता है
जाना तो है ही जिंदगी के आख़िर तक
जाने ख़ुदा किसका कैसा सफर रहता है