चित्रा पंवार
उसके गांव में नहीं बहती थी कोई नदी
जिसमें डूबकर वह पार हो जाए अपने दुखों से
दर्द के खदबदाते अदहन में उबलती उसकी देह ने
कई बार चाहा
पहाड़ की चोटी से जरीब बन सतह को नाप लेना
उस गांव में पहाड़ बसता था थोड़ा थोड़ा सबों में
इसलिए भूमि पहाड़ विहीन दूर तक समतल बिछी थी
भादो की एक रात वह भागी थी कुंए की ओर मगर उपयोगविहीनता ने उस कुएं को भी कूड़े का संग्रहालय बना दिया था
मैदान की रेतीली जमीन पर वह कुछ क्षण मछली सी फड़फड़ाती
फिर बिछ जाती चुपचाप
जैसे–जैसे कुम्हार की मिट्टी सी रोदी जाती उसकी काया
वह गाली देती अपने कुल, पिता, भगोड़े प्रेमी, मरे हुए पति,
यहां तक कि अपने आप को भी
धरती लबालब भरे समंदरों के थाल हंसते–हंसते उठा लेती
मगर उसकी देह पर पसरा बोझ पृथ्वी को डांवाडौल कर देता
उस पर बोलने के लिए सारा गांव था मगर उसके लिए बोलने वाला कोई नहीं
वो अक्सर दिन के उजास में दर्पण में देर तक निहारा करती
अपनी स्तन, जांघों, कमर, होंठो को
हाथ, पैर, मुंह जैसे ही खाल, मांस से निर्मित इन अंगों पर इतनी क्रूरता!
इतनी भूख…!
घना अंधेरा उसे दबोच लेता हर रात
दिन उगने से पहले उसके माथे पर बढ़ जाता एक ओर काला धब्बा
मर्दों के लिए वह रात का चमकीला रंग और दिन की कालिख थी
सभ्यता की सबसे शरीफ़ बस्ती में वह अकेली बदचलन औरत और
दूसरों के पाप धोकर मलिन हुई गंगा थी
सरकारी ज़मीन थी वह, जिसपर कब्जा जमाने की होड़ में मानवता नित शर्मसार होती रहती
वह गिड़गिड़ाती रहम की भीख मांगती
चीख–चीख कर सुनाती तथाकथित संभ्रांतों की हैवानियत के किस्से
वे उपेक्षा से हंसते मगर भीतर ही भीतर डरते
नंगों को नंगा होने से डरता देख
यह हँस पड़ती करुण हँसी
बच्चे पगलिया कहकर दौड़ा लेते दूर जंगल तक
खेलने खाने वालों के पेट और मन जब उपर तक भर गए
नए मनोरंजन की खोज स्वरूप उसे नवाजा गया
डायन की उपाधि से
अब वह अनाप शनाप बकती हुई घूमा करती यहां वहां
डायन की बात पर कोई कान तक नहीं धरता
एक दिन पंच बैठे, लोग जुटे
डायन के कारण गांव, फसलों, पशुओं पर आ रही विपत्तियों पर चर्चा हुई
मृत्युदंड पर सर्व सहमति के साथ पंचायत ने निर्णय सुनाया
डायन को आग के घेरे के में खड़ी करके लाठी–डंडों, पत्थरों से मारा जाए
जीते जी मरी हुई जिन्दगी जीने वाली अभागन आज मर कर जी उठी थी
लोगों ने राहत की सांस ली
अब सुरक्षित था उनका गांव, सुरक्षित थी उनकी इज्जत
सुरक्षित थी शायद वह भी…