गरीबी की जात नहीं होती
वो अभिशाप है
जिसे मिलती है सारा कुछ
आधा अधूरा देती है
न भरपेट अनाज मिलता है
तन पर वस्त्र न पूरा
न दोस्त रिश्तेदार
सर के ऊपर छत फूस की
जो आँधी आए
तो छिन जाती है
बारिश का मौसम
रात आधी कटे आँखों में
तैरते बर्तनों के बीच
चूल्हा भी सुलगता आधा
कभी आग कभी धुआं
आँसू आँख से
छलकाता हुआ पर पूरा
निशि सिंह