पुस्तक- कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
लेखक- डॉ वंदना मिश्रा
प्रकाशक- अनामिका प्रकाशन
मूल्य- 350 रुपये मात्र
समीक्षक- डॉ स्वाति दामोदरे एवं डॉ निशाली पंचगाम
धैर्य, शक्ति और सहृदयता से परिपूर्ण महिलाएं अपार प्रेरणा का स्त्रोत हैं। एक बहन, बेटी, बहू, पत्नी और माँ के रूप में उनकी उल्लेखनीय यात्रा नि:संदेह सम्मानीय है। समाज की प्रगति में मातृशक्ति की महत्वपूर्ण भागीदारी होने के बावजूद भी उनके हृदय की पीड़ा, भावनाएं, संवेदनाएं कहीं अभिव्यक्ति नहीं हो पाती हैं और मन ही मन रह जाती हैं। ऐसे में जब कोई महिला साहित्यकार स्त्री मन की कलम में भावनाओं की स्याही भरकर उसे संवेदनाओं के कागज पर काव्य रूप में बिखेरती है तो यकीनन ये कविताएं हर एक स्त्री के मन का प्रतिनिधित्व कर अभिव्यक्त होती हैं। कविता क्षेत्र में लब्ध प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ वंदना मिश्रा इस फन में माहिर हैं। जिन्होंने अपने काव्य संग्रह ‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ में स्त्री मन की संवेदनाओं को स्वर प्रदान किया है।
पहले काव्य संग्रह ‘सुनती ही नहीं लड़की’ के पश्चात् अपने दूसरे काव्य-संग्रह ‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ में भी उन्होंने स्त्री मन को टटोला और उसे सहज और सरल रूप में व्यक्त किया। संग्रह में स्त्री विमर्श का आक्रोश का स्वर कहीं नहीं दिखाई देता है।
काव्य-संग्रह ‘ कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ में वे सामान्य स्त्री के जीवन के विविध पहलुओं को उठाती हैं। स्त्री को बचपन से ही जिस उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। संग्रह के फलैप पर लिखी इबारत में स्पष्ट रूप से लिखा है कि- ‘‘वन्दना मिश्रा की कविताओं में स्त्री विमर्श का शोर नहीं बल्कि अस्तित्व के प्रति गंभीरता का स्वर सुनाई पड़ता है। उनकी कविताओं में माँ, बहन, बेटी पत्नी के ऊपर स्त्री एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में भी प्रदर्शित की गई है।’’ (संग्रह के फलैप से)
सचमुच भावनाओं को बड़ी खूबसूरती के साथ कविता में पिरोती हैं वंदनाजी। अल्पाक्षरत्व तथा सूचकत्व जैसे लक्षण जो कविता की एक बड़ी पहचान है, वंदनाजी की काफी कविताओं में पाए जाते हैं।
समकालीन समस्याओं के साथ स्त्री की समस्याओं पर वंदना जी की लेखनी समान रूप से चली है। प्राचीन काल से ही स्त्री हमेशा पुरुषों के शोषण की शिकार रही हैं। भले आज परिस्थितियों में परिवर्तन आया है किन्तु क्या आज भी एक स्त्री ने दूसरी स्त्री को पूरी तरह से समझा है? क्या समाज और परिवार में हर स्त्री दूसरी स्त्री के साथ खड़ी होती है? इस बारे में अपनी कविता ‘पगली या प्रश्न’ में वंदनाजी कहती हैं-
‘‘हमें जल्दी है
स्त्री-विमर्श और सशक्तिकरण की सभाओं में जाने की
और पगली गोद में बच्चा लिये
हमारा रास्ता रोको लेती है ……।’’
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ०43)
यह पगली कौन है? ये रास्ते में भटकने वाली ऐसी स्त्री है। जिसके वस्त्र नोच लिये होंगे सुनसान इलाके में किसी भेड़िये ने। इसी बलात्कार से उसने जन्मा होगा गोदा का वह नन्हा बच्चा। स्त्री-विमर्श पर बात करने वाली आधुनिक स्त्री को स्त्री-विमर्श की चर्चा मे रस है, परंतु शोषित वह पगली औरत में कोई रस नहीं है। यही समाज की वास्तविकता है।
हम सोचते हैं कि स्त्री-विमर्श की चर्चा होने से कुछ ना कुछ परिवर्तन समाज में आते हैं, सोच बदलेगी इस उम्मीद से हम चर्चाओं, परिसंवादों सम्मेलनों की ओर बड़ी आशा से देखते हैं। अपनी कविता ‘जैसे खेला जाता है’ में वंदनाजी की लेखनी से आक्रोश इस प्रकार अभिव्यक्त होता है-
‘‘जैसे खेला जाता है स्त्री विमर्श
वैसे ही दलित विमर्श, दलित विमर्श खेला जा रहा था
एक बडे मंच पर,
बड़ा मंच, तो जाहिर है बड़ी बड़ी हस्तियाँ भी थीं
आक्रोश से फनफनाते और फनफनाने का नाटक
करते बुद्धिजीवी
और बस एक प्रमाण-पत्र या भोजन या दोनों का
इंतजार करते श्रोता..
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ०88)
स्त्रियाँ केवल बाहर ही शोषण का शिकार नहीं होती बल्कि घर में उनका अनेक रूप में शोषण होता है। घर-परिवार, पति और बच्चों की खातिर वो अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा देती है। परिवार का कोई सदस्य उनकी भावनाओं को समझ नहीं पाता। माँ की पीड़ा का अहसास बेटी को तब पता चलता है जब वह स्वयं माँ बनती है।
इसी अहसास को अपने शब्दों में कवयित्री अपनी कविता ‘ माँ ने कभी उफ नहीं किया’ में कुछ इस प्रकार बयां करती हैं-
‘‘माँ ने कभी उफ तक नहीं किया कष्टों में
और हम खुश होते रहे माँ की इसी अदा पर
माँ हमारे लिए त्याग की मूर्ति रहीं
गाँधी की तरह पूजते रहे माँ को हम
और सिसकती रही माँ की भावनायें भीतर-भीतर।’’
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ०80)
काव्य संग्रह की अधिकांश कविताओं में स्त्री शिद्दत के साथ मौजूद है, फिर वो चाहे किसी भी रूप में क्यों ना हो? प्राचीन काल से बेटी को पराया धन समझा जाता है। जिस घर में उसकी डोली जाएगी, उस घर से उसकी अर्थी निकलनी चाहिए। यह संस्कार बेटियों को जन्म के बाद से ही घुट्टी के साथ पिला दिया जाता है पर उस बेटी को यह समझ नहीं आता है कि जिस घर में उसने जन्म लिया उस घर और घर के लोगों को वह अपने से कैसे दूर कर पाएगी। इस कसक को ‘हमें बचपन से’ कविता से माध्यम से स्पष्ट करते हुए वे कहती हैं कि-
‘‘हमें बताया गया था कि जिसकी धूल मे गिरते
उठते सीखा चलना हमने
वह हमारा नही आँगन
इतना हीं नहीं इसमें रहने वाले लोग भी हमारे नहीं
हम पराये हैं बावजूद इसके कि
इस घर में बसती हों हमारी साँसें।’’
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ० 17)
कवयित्री के लेखन में जबरदस्त आग है। वे पाठकों को अन्तर्दृष्टि भी देती है तो दूसरी ओर उनके मन-मस्तिष्क पर गहरी अमिट छाप भी छोड़ती है। स्त्री के समर्पण को पुरूष हमेशा से अपनी जीत समझता आया है। जबकि वास्तविकता यह है कि वो जीतता उस मोर्चे पर है जहाँ स्त्री लड़ती ही नहीं और ना ही लड़ने का प्रयास करती है। इसी बात को बड़े साहस के साथ ‘तुम्हें तो पता ही था’ कविता के माध्यम से उजागर किया है-
‘‘तुम्हें तो पता ही था
की मैं हारुंगी
प्रयास भी तो नहीं किया था कभी जीतने का
X X X X X X X X
X X X X X X X X
दु:ख तो सिर्फ इतना है
कि मै हारी सदा उन मोर्चो पर
जिन पर तुम कल्पना भी नहीं कर सकते
और जीतने का दंभ किया तुमने वहाँ
जहाँ मैं लड़ी ही नहीं कभी ।’’
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ० 20,21)
हमारे समाज में पति चाहे कैसा भी हो? उसे परमेश्वर का दर्जा दिया जाता है और उसे हर हाल में खुश रखने का जिम्मा पत्नी का माना जाता है। यहाँ तक कि कई माता-पिता भी अपनी बेटी को यह सीख देते हैं। इसी पर आधारित है ‘कहा गया था उससे’ कविता।
‘‘कहा गया था उससे कि सदा खुश दिखे पति को
नहीं तो भटक जायेगा
पर नहीं माना उसने कभी
सिर्फ खुश होने पर ही दिखेगी खुश
जिद्द थी उसकी।’’
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ० 46)
रचनाकार अपनी कविताओं में सिर्फ समस्याओं का वर्णन ही नहीं करती वरन् उसका समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। संग्रह की भूमिका में लिखा गया है कि- ‘‘वन्दना अपनी कविताओं के माध्यम से सिर्फ प्रश्न ही नहीं उठाती बल्कि उनका उत्तर भी उनकी कविताओं में निहित होता है जो अंत तक आते-आते पाठकों को अवाक कर देता है।’’ ‘माँ कहती रही’ कविता में इसकी बानगी देखिए-
‘‘ माँ कहती रही इतना भरोसा करो पति पर
कि वह बेवफा न हो सके,
और मैं बहस करती, अगर भरोसा न जगे तो,
अगर बेवफा हो तो कैसे भरोसा हो?
X X X X X X X X
X X X X X X X X
मैं कुरेदती माँ को
पिता पर जिस अटूट विश्वास
की कसम खाती हो तुम,
क्या वह भी बहकाना है, खुद को
माँ कहती है बेटियों को इन प्रश्नों में
नहीं पड़ना चाहिए’’
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ० 55)
वन्दनाजी की बहुचर्चित कविता ‘कुछ बेरोजगार लड़के’, ‘कालोनी में एक लड़का’ एवं ‘गहनतम बेरोजगारी’ जैसी कविताओं के माध्यम से बेरोजगारी की ओर हमारा ध्यान इंगित करती हैं। संग्रह की भूमिका में लिखा गया है कि- ‘‘बेरोजगार लड़कों पर उनका दृष्टिकोण दुर्लभ है। इस दृष्टि से उनकी कविता ‘कुछ बेरोजगार लड़के’ प्रशंसनीय है।’’ (संग्रह की भूमिका से)
‘कवि चाहता है’ इस कविता में कवि मन के दर्द दर्शाया गया है। शहरीकरण के कारण रिश्तों में आई दरार को कवयित्री ने ‘मुंबई से कल ही’ कविता के द्वारा उजागर किया है। पिछली सीट पर बैठे श्रोताओं की बेरूखी को वक्ता कैसे भाँप लेता है? इसका चित्रण ‘पिछली सीट के श्रोता’ कविता में किया गया है। हर बेटी अपने पिता के गुणों की तलाश अपने पति में करती है किन्तु कुछ अनुभवों के उपरांत कवयित्री चाहती है कि उसे अपने चाचा जैसा पति मिले। इसी भावना को ‘पिताजी मेरे आदर्श थे’ इस कविता में अभिव्यक्त किया गया है। अपने परिवार और गृहस्थी वाले घर और कार्यक्षेत्र वाले शहर के घर के आपसी तालमेल बैठाने की स्त्री की जद्दोजहद ‘दो जगह की गृहस्थी’ कविता में स्पष्ट होती है। अपने देश के लिए कुछ करने का माद्दा रखने वाली लड़कियाँ जब ब्याह के बाद घर और गृहस्थी में उलझ जाती हैं तब देश की सेवा करने का उनका यह सपना धरा रह जाता है। ऐसी लड़कियों से ‘बड़ी निपुण थी बेटी’ यह कविता सवाल करती है कि अपने देश को किसके भरोसे छोड़ दिया है? वन्दनाजी की कविताओं में किसी प्रकार का शोर-शराबा या होहल्ला नहीं है बल्कि सीधे वे प्रश्न उपस्थित करती हैं। जैसा कि संग्रह के फलैप पर लिखा है कि- ‘‘अपनी सादगी में भी उनकी कविता सवालों की सुइयाँ लेकर चलती है। वे सीधी सहज पंक्तियाँ रचती हैं पर उनमें एक थ्रिल है। वे न क्रांतिकारी तेवर ओढती है न नारेबाजी के पायदान पर उतरती हैं, पर सोच साफ रहने से कविताएँ मन को सुकून और ताकत दोनों देती हैं। वे स्त्री के लिए कठिन और दुरूह परम्परागतत समाज के कठोर यथार्थ का चित्रण ही नहीं करती अपितु परिस्थियों के बदलाव को, समीकरणों को, प्रतिस्थापित भी करती है। (संग्रह के फलैप से)
पुरूष प्रधान सामाजिक व्यवस्था की जिन समस्याओं का सामना स्त्रियाँ करती हैं, उनके लिए उन्हें ही दोषी ठहराना या फिर उनकी अनदेखी करके यही सुखी औरतों के गणित का समीकरण प्रस्थापित करती है। ‘सुखी औरतें’ कविता के माध्यम से कवयित्री ने इसी बात पर व्यंग्यात्मक प्रकाश डाला है। ‘नया शिकार’ कविता के माध्यम से स्त्री की अन्तर्मन की पीड़ा को व्यक्त किया गया है। ‘माँ ने कभी सपना नहीं देखा था’, ‘बेटियाँ होती है माँ’, मैं तुम्हारे कपड़े’ आदि कविताओं में माँ और बेटी की भावनाओं को सलीके से शब्दबद्ध किया गया है।
इन कविताओं के अलावा ‘दो लोग थे’, ‘गर्ज यह है कि’, ‘आकस्मिक सामूहिक अवकाश’, ‘बनारस शहर नहीं’, ‘कवि का बयान’, ‘एक छोटी-सी तस्वीर’, ‘मैंने महसूस किया’ सहित अन्य कविताएं भी रोचक एवं पठनीय है।
संग्रह की अंतिम कविता ‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ है। जो कि इस काव्य-संग्रह का शीर्षक भी है। स्त्रियाँ परिवार के प्रति इतनी समर्पित हो जाती है कि वे बिन कहे हर सदस्य की भावनाओं और जरूरतों को जान जाती है परन्तु क्या कभी किसी स्त्री ने अपने बारे में जानने का प्रयास किया है कि उसे क्या चाहिए? बचपन में सखियों के संग गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलते-खेलते न जाने कब सजीले गुड्डे को देखकर राजकुमार के सपने दिखाई देते हैं किन्तु वह डरती है ऐसे सपने देखने से। विवाह के पश्चात् वह मात्र एक कठपुतली बनकर रह जाती है जिसकी डोर वह स्वयं किसी और के हाथ में थमा देती है। वो सपने देखने से भी डरती है कि कहीं ये सपने सच न हो जाए। इसी का वर्णन करती कवयित्री कहती है कि-
‘‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
अपनी पसन्द-नापसन्द के विषय में
X X X X X X X X
X X X X X X X X
डरती है स्त्री सपनों से, जिस समय
डूबी होती है प्रेम में
उस क्षण भी नकारती है
ऐसा सचमुच होने से
उम्मीदों की बारिश में भीगती है
औरत डरते-डरते
(कितना जानती है स्त्री अपने बारे में , पृ० 102)
वन्दनाजी की कविताओं में दृढ़ षिल्प और सहज, सरल षैली होने के कारण समाज की सच्चाई और अनुभूति की गहनता हमें बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है। नई कविता का विचार-विश्लेषण तथा शिल्प-तेवर सब मौजूद हैं उनके यहाँ, पर बिना शोर के। विचार और संवेदना की ऐसी निकटता कम दिखाई पड़ती है। (संग्रह के फलैप से) काव्य संग्रह कथ्य और षिल्प दोनों ही दृष्टिकोण से अभिव्यक्ति की उत्कृष्टिता को दर्शाता हैै। डॉ वन्दना मिश्रा ने शब्दों की तूलिका से चलते-फिरते चित्र उकेरे हैं। कविता का हर एक शब्द आँखों के आगे एक चित्र-सा बनाता चला जाता है। संग्रह में सम्प्रेषणीयता और अभिव्यक्ति का मणि कांचन योग दिखाई पड़ता हैै। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि ‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ में वंदना मिश्रा भावात्मक रूप से अधिक मुखर हुई हैं। इस संग्रह की कविताएँ निश्चित ही एक परिपक्व कवि की प्रतिनिधि कविताएँ हैं जिन्हें उनके जीवनानुभवों का निचोड़ कहा जा सकता है। संग्रह का शीर्षक कौतूहलजनक और रोचक है। कविताओं की सरल-तरल भाषा, अपने शीर्षक के अन्तर्निहित मन्तव्यों को सहजता के साथ पाठक तक पहुँचाती है। साफ-सुथरी छपाई, शीर्षक से सुसंगत आकर्षक आवरण के साथ छपा यह काव्य-संग्रह पाठकों के दिलों में गहरी पैठ बना लेता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि यह काव्य संग्रह साहित्यिक मापदंडों की कसौटी पर खरा उतरता है।