किसी ने मुझसे कहा,
आजकल शब्दों में वो बात नहीं।
वो तलवार की धार नही,
शब्दों में वो वार नहीं।
कसावट कहीं खो सी गयी,
शब्दों में शब्दों का नशा नहीं।
बेजान से लगतें है आजकल,
रस और प्राण नहीं।
ना तीखापन कहीं,
ना श्रृंगार की साज सजी।
बुझी-बुझी सी चिंगारी हैं।
धधकती सी आग नहीं।
कहाँ गया शब्दों का जादू,
उमंग-उत्साह नहीं।
शब्द तो लगते हैं,
लेकिन आशा की बात नहीं।
मैंने कहा
लिखती हूँ इसलिए लिखती हूँ।
पहले सी वो बात नहीं।
पहले खुशी से लिखती थी,
खुशी की अब बात नहीं।
मन करता था पहले लिखने का,
लिखकर सर को बताऊँगी।
पढ़े या न पढ़े,
सर्वप्रथम उन्हें पहुँचाऊगी।
अब वो रास्ता नहीं तो,
किसकों लिखकर बताऊँगी।
चाहती थी आशीर्वाद जिनका,
जब सिर पर वो हाथ नहीं तो,
आशीर्वाद कैसे पाऊँगी।
शब्द तो हैं पास मेरे,
पर अब उनमें रस नहीं।
कविता तो बन जाती है।
पर कविता में प्राण नहीं।
क्योंकि
मेरी कविता मर गई।
गरिमा राकेश गौतम
कोटा, राजस्थान