खुद का खुद ही में,
अंत करोगे?
या कि,
खुद को संत करोगे?
विपरीत विपर्यय,
जीवन बीते प्रतिक्षण,
कब यह प्रश्न स्वयं से,
तुम निशंक करोगे?
था गर्व जिस पर तुमको,
वह तो बिता हुआ सर्ग था।
आह्वान दे रहा भविष्य तुम्हें,
कब?
पटाक्षेप तुम,
भविष्यत् का करोगे?
विलोपित होगे,
जीवन रण में?
या कि,
स्वयं के पदचिन्ह गढ़ोगे?
ज्योति अग्निहोत्री ‘नित्या’
इटावा, उत्तर प्रदेश