【फाँसी से एक दिन पूर्व, भगत सिंह के द्वारा अपने कैदी साथियों को लिखे गए अंतिम पत्र का काव्यनुवाद】
22 मार्च 1931
सुनो साथियों, आज कह रहा, बातें सब अंर्तमन की।
है स्वाभाविक मुझमें भी हो, चाहत अपने जीवन की।
पर जीने की शर्त एक ही, कैद नहीं मुझको रहना।
इससे बेहतर ये होगा अब मृत्यु बने मेरा गहना।
भारत में अब भगत सिंह इक, आज़ादी का नाम है।
मुक्ति मार्ग पर बढ़ते जाना, जिसका केवल काम है।
आज़ादी के समर क्षेत्र में, गढ़े गए प्रतिमान यहाँ।
अब अपने कृत्यों से मुझको, देना उनको मान यहाँ।
दसों दिशाएँ बलिदानों की, अमर कथाएँ मिल गातीं।
कीर्ति पताका जिनकी जग में, अम्बर तक है लहरातीं।
मुझको भी प्रतिमान एक अब, कर्मों से गढ़ना होगा।
उन्नत गौरव शीश लिए, बलिदान मार्ग बढ़ना होगा।।
यदि फाँसी के बदले अपने जीवन का मैं मोह करूँ।
भारत की बेड़ी भूलूंगा, ऐसा मन प्रण एक धरूँ।
तब बतलाओ जीवन से मैं गौरव कैसे पाऊँगा।
आज़ादी की बेदी पर मैं, कैसे शीश चढ़ाऊंगा।
एक भगत सिंह के जाने से, अनगिन केहरि आयेंगें।
ब्रितानी शैतानी पर जो, विपदा बनकर छायेंगें।
एकमात्र बस दुख मुझको ये, बहुत नही मैं कर पाया।
अंग्रेजो पर मानवता हित, कहर नहीं मैं बरपाया।
यदि जीवित मैं रह सकता तो, इच्छा ये पूरी करता।
भारत की आज़ादी को मैं, मुक्ति भाव कर में भरता।
और मेरे मन में साथी अब, आता कोई लोभ नहीं।
देशमुक्ति हित जीवन जाए, इसका कोई क्षोभ नहीं।
स्वंय गर्व से हर्षित हूँ मैं, जीवन ऐसा जो पाया।
प्राणों का उत्सर्ग देशहित, दूर करे बंदी छाया।
आज कर रहा यही कामना, क्षण वो जल्दी आ जाए।
मेरे प्राणों से मिलकर ये, आज़ादी अब मुस्काये।
दीप मुक्ति जलता जाए।
वैभव भारत फिर पाये।
आज़ादी अब मुस्काये………..।
आपका साथी
भगत सिंह
【जन्मदिन पर शत् शत् नमन】
श्वेता राय