आज अंबर से पूछती हाथ फैलाए धरा,
तम की ज्वाला में तप रहा क्यूँ हृदय मेरा
हर ओर प्रतिशोध कीअग्नि जली,
मैं ना तुम में ना आप तुम में
कैसी रचना गढ़ी प्रकृति की छटा,
आंखों में भरी है किसने रक्त सी लालिमा
बार बार यह कह रही मैं रहूं या तुम रहो,
या फिर जल जाए धरा
भेदते हो तुम मेरी क्यूँ बार-बार चेतना,
बन गई क्यों पीड़ा मेरे अंग अंग का गहन
अश्रुपूरित नयन मेरे, टूटी दर्द की शिला,
पूछती हूं स्वयं से किसका है ये किया धरा।
यौतुक की अग्निशिखा से अधजला क्यूँ मुखमंडल मेरा,
प्रतिदिन क्यूँ ध्वस्त होती नारी की अस्मिता यहां
गर्भ में मारी जाती क्यूँ हमारी पहचान,
पनही से रौदीं जाती बच्चियों की तरनी यहां
धीमी पड़ी क्यूँ द्रौपदी की चीत्कार
रक्तकर्णिका से रक्तिम हुआ आंचल मेरा
घर घर में रावण बैठा, पग पग पर दुशासन,
कंस की परछाई में कई कंस जन्मे यहां
राम कृष्ण की धरती पर किसका है पहरा,
सरजू का घाट पूछता कब आएंगे रघुराई यहां
यमुना के घाट पर छाई कैसी उदासी,
कृष्ण की बांसुरी की धुन धीमी पड़ी क्यूँ यहां
अब सीता का सतीत्व मांगता वरदान है,
सम्मान दो, अधिकार दो, प्रहार का वरदान दो
आज अंबर से पूछती हाथ फैलाए धरा,
तम की ज्वाला में तप रहा क्यूँ ह्रदय मेरा
प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश