खुदा
काश मेरे बलिदान को समझा होता,
कानों में गूंज रहे
दुनिया के शोर को अनसुना कर,
मेरी मुस्कुराहट के पीछे छुपी
बेबसी को आंका होता।
लोगों को छोड़,
मेरे ज़ख्मों पर भी नज़रों को डाला होता,
मेरी हां में भी ना को पहचाना होता,
मेरे त्याग की तपस्या में भी,
मज़बूरी मेरी जानी होती।
इन सूखी आँखों में,
बह रही मार्मिक धारा की
नमी पहचानी होती।
ज़ुबान पर ना की आवाज़ के पीछे,
हृदय में गूंज रही हां को सुना होता।
सन्नाटे में गूंज रही,
बंद ज़ुबान से निकले शोर की आहट को
महसूस किया होता।
मेरी हंसी ठीठोली के पीछे,
हिलोरे मारते दर्द की तड़प को भांपा होता।
गैरों की मुस्कुराहट के लिए,
दी गई मेरे त्याग को समझा होता।
ऐ खुदा
काश तुमने एक ऐसी रूह को भी रचा होता,
जो मेरे ज़ख्मों का ज़ख्म नहीं,
मरहम होता।
पूजा कुमारी
बीए छात्रा
पिजीजीसिज- 42,
चंडीगढ़