ख़ुदा के सामने जिसने भी सर झुकाया है
उसी ने यार यहाँ मंज़िलों को पाया है
तू मेरा गीत है, संगीत मेरे जीवन का,
तुझे ही दर्द में हर बार गुनगुनाया है
मुझे यक़ीन था जिस दोस्त की वफ़ाओं पे,
उसी ने पीठ पे ख़ंजर को आज़माया है
वफ़ा, वफ़ा न रही अब तो इस ज़माने में,
जरा सी बात पे लोगों ने दिल दुखाया है
तुम्हारे दर्द से दुनिया को लेना-देना क्या,
तुम्हारी मौज़ पे दुनियाँ ने सितम ढाया है
सुकून यार कहाँ उसको इस जमाने में,
ज़रा से इश्क़ में जिसने भी ज़ख्म खाया है
ये अपने-अपने मुक़द्दर की बात है ‘रकमिश’
किसी को ज़ख्म मिला, कोई मुस्कुराया है
रकमिश सुल्तानपुरी