ऋतिका रश्मि
भुवनेश्वर, उड़ीसा
सुनो… इतना आसान नहीं है
तय कर पाना,
कलछी से कलम तक का सफर
नहीं है महज़ मामूली, दबा पाना
अपने अंतर की आवाज को..
अनगिनत बार मारना पड़ता है अपने स्व को खु़द से हीll
ये अन्नपूर्णा और माँ वागेश्वरी
इन दो देवियों के बीच का
सर्वथा मौन और असाध्य द्वंद्व युद्ध हैll
मैंने पाया है….
कलछी और कलम के बीच
एक अकाट्य विरोधाभास को सर्वदाll
हो जाती है विकल और अधीर आत्मा कलम की,
पकड़ते ही हाथ में कलछी हमेशाll
कलछी से निजात पा के
पकड़ो गर कलम तो हो जाया करती है
जे़हन से काफूर सब के सब शब्द कपूर के मानिंदll
जो अभी भेद रहे थे तुरंत
नस-नस को मस्तिष्क के,
कलम की वो नोंक जो थी आतुर कागज़ के सीने को चीरने को..
वही अब देखो बैठी है
अनशन पर कब सेll
और कलछी?
उसे तो कलम पकड़ने की चाहत और इस अफरातफरी ने
कर रखा है पहले ही नाराजll
बहुत मुश्किल होता है
झाड़ू की सींक के सहारे धूल के
हर कण को और
शब्दों के मनकों को समेट और सहेज पाना एक साथll
दुरूह ही नहीं अति दुस्तर
होता है चाय के पानी का
उबाल और मन के उफ़नते घुमरते वेग एवं कलम के लिए
हिय में उठे उद्गार के प्रति न्याय कर पाना एक साथll
पर हाॅं सुनो तुम ओ कलछी
और ऐ मेरी कलम तुम भी…
मैं नारी हूँ…
मेरी रचना हीं विधाता ने
दो विपरीत परिस्थितियों से जूझकर स्वयं को
तराशने के उद्देश्य से की हैll
दो नदियाँ….
मायका और ससुराल के बीच की सेतु हूँ मैंll
कई रूप…..
माँ, बहन, पत्नी और बेटी,
इन सबमें और इन सभी को जीती हूँ मैंll
कई दरवाज़े….
पिता, भ्राता, पति और फिर पुत्र
इन चार स्तंभों के मध्य की मजबूत नींव हूँ मैंll
ओ अन्नपूर्णा और वाग्देवी..
तुम दोनों की यथाशक्ति
पूजन कर
अपने कर्तव्यनिष्ठता का दायित्व निभाऊंगी मैंll
हाँ……
मेरी कलम और मेरी कलछी
तुम दोनों का दंश और अंश अपने अंदर समेटे यथावत्
युगों-युगों तक चलती रहूंगी मैंll