Saturday, July 27, 2024
Homeसाहित्यखिड़की- जयश्री दोरा

खिड़की- जयश्री दोरा

हालाँकि खिड़किओं पर लिखी गईं हैं
अनगिनत कविता
पर हर घर की खिड़की की कहानी
अलग होती है न?

हर घर जो अलग होता है दूसरे से

अलग होती हैं हर खिड़की से
झाँकनेवाली आँखें
ये जरुरी नहीं खिड़की से झाँकनेवाली आँखें
खिड़की के बाहर के दृश्य ही देखती होंगी
खिड़की के पास खड़ा वर्तमान
देखता है भविष्य, सोचता है अतीत

कभी सोचा है
जब हम चुप-चाप खड़े निहारते हैं
खिड़की से बाहर
उसी समय खिड़की देख रही होती है
पूरी तन्मयता के साथ हमारी आँखों को
देखती होगी उनमें तैरनेवाले सपने
वर्तमान, अतीत, भविष्य,सुख-दुःख
पूरी शिद्दत से महसूसती होगी उन्हें

उसकी भी तन्मयता टूटती होगी
जैसे अक्सर टूटा करती है हमारी
जब हम धड़ाम से बंद करते होंगे उसे
किसी अनागत भय की आशंका से
देर तक धम-धम बजता होगा
उसका ह्रदय

किसने कह दिया कि जातिवाचक होतीं हैं खिड़कियाँ
खिड़कियाँ तो सर्वथा व्यक्तिवाचक ही होती है…..

-जयश्री दोरा

संबंधित समाचार