समीक्षा: नीलिमा पांडेय
असोसिएट प्रोफेसर,
प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश
“तोत्तो-चान” 1981 में प्रकाशित एक जापानी उपन्यास है। इसमें तोत्तो-चान नाम की छोटी बच्ची की कहानी है, जो बाल सुलभ कौतुहल व जिज्ञासाओं से लबरेज व खुशमिजाज है। जब तोत्तो-चान स्कूल जाती है, तब उसे भी बाकी सब की तरह बाल शिक्षा के पारंपरिक विचारों व पढ़ाने के वही रटे-रटाए तरीके से पढ़ाई लिखाई में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं रहती। वह स्कूल की खिड़की में खड़ी होकर बाहर के नजारों को जी भरके देखती रहती है, चिड़ियों से बातें करती है, शरारतें करती है।
उसकी शैतानियों कारण उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। यह बात बताए बगैर उसकी मां एक नए स्कूल तोमोए में उसका दाखिला करवा देती है। तोत्तो-चान को नया स्कूल खूब पसंद आता है। यहां स्कूल रेल की बोगियों में लगता है, शिक्षक और खासकर हेड मास्टर, शिक्षक कम दोस्त ज्यादा लगते हैं। सबने मिलकर इस स्कूल को मस्ती की पाठशाला बना लिया था। यहां बच्चों को अभिव्यक्ति और विचारों की स्वतंत्रता मिलती है। बच्चे खेल-खेल में कब पढ़ाई कर लेते हैं और पढ़ाई के बीच कब खेल लेते हैं, पता भी नहीं चलता।
इस पुस्तक मे बच्चों के मनोविज्ञान को बड़े ही सुरुचिपूर्ण तरीके से लिखा गया है। बच्चों के आकर्षण के पीछे कोई निश्चित वजह नहीं होती, वे हर उस चीज़ से आकर्षित होते है जो नयी होती है, मजेदार होती है और यह सिलसिला चलता ही रहता है। उसके पीछे कोई नियम काम नहीं करता। तोत्तो-चान के बदलते लक्ष्यों के पीछे भी यही कहानी है। कभी वह जासूस बनाना चाहती है तो कभी वह केवल टिकटों को एकसाथ देखने भर से ही वह टिकट कलेक्टर बनाना चाहती है, तो कभी वह नृत्यांगना बनाना चाहती है। अक्सर वयस्कों को लिए गैर मामूली सी लगने वाली बातें बच्चों के लिए कितना महत्व रखती है यह जानने कि जरूरत है। क़िताब में लेखिका भी कहती है– “ऐसे किसी खेल कि कल्पना करना जो बड़ों को थका भी दे और उबाऊ भी लगे, बच्चों के लिए बड़े ही मजे कि बात हो सकती है।”
इस क़िताब में ‘शिक्षा कैसी होनी चाहिए’ इस बात को प्रभावी तरीके से उठाया गया है। बच्चों को बस्ते के बोझ और पढ़ाई के आतंक से बचाना जरूरी है इस बात को बारहा महसूस किया गया है। ये बात अलग है कि इस दिशा में सार्थक कदम कम ही उठे। सहज बचपन पर बच्चों का हक़ तो बनता ही है। शिक्षकों, अभिभावकों के साथ-साथ जरूरी है कि बच्चे भी इसे पढ़ें।
तोमोए स्कूल के बारे में बताती यह किताब एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। इस किताब की कोई भी घटना मनगढ़ंत नहीं है। ये वास्तविक घटनाएं हैं जो लेखिका को याद रह गईं। लेखिका ने इस पुस्तक के माध्यम से अपने उस वादे की तामीर करने की कोशिश की है जो उसने अपने बचपन के स्कूल तोमोए के प्राचार्य से किया था। वादा यह था कि वह बड़ी होने पर तोमोए में बच्चों को पढ़ाएगी। बचपन का यह वादा वह पूरा नहीं कर सकी। लेकिन उसकी कोशिश रही कि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने स्कूल के प्रिंसिपल कोबायाशी के बारे में बताएं। एक खूबसूरत स्कूली जीवन देने के लिए उसके मन में श्री कोबायाशी के प्रति कृतज्ञता का भाव है। श्री कोबायाशी की इस कहन ने कि, “तुम सचमुच अच्छी बच्ची हो” तोत्तो-चान (तेत्सुको कुरोयानागी) के मन पर गहरा असर डाला। उसकी आत्मविश्वासी शख्सियत गढ़ने में इस बात ने गहरी भूमिका निभाई। दुर्भाग्यवश सन 1945 के हवाई हमलों में लगी आग में तोमोए नष्ट हो गया।
रेल के डिब्बों में कक्षाएं लगाने का श्री कोबायाशी का प्रयास अनूठा था। सन 1937 में स्कूल की स्थापना से पहले उन्होनें कई साल अध्ययन में बिताए और प्राप्त अनुभव के निचोड़ पर तोमोए की स्थापना की। मात्र नौ वर्षों के भीतर ही वह जलकर राख हो गया। उसके अस्तित्व की क्षणभंगुरता तोत्तो-चान को हैरान करती है। वह सोचती है कि अगर युद्ध न हुआ होता तो न जाने कितने बच्चे श्री कोबायाशी के स्नेह और संरक्षण में अपने जीवन को नई दिशा दे सकते थे, आगे बढ़ सकते थे। अपने अनुभवों के आधार पर तोत्तो-चान बताती है कि श्री कोबायाशी की शिक्षण पद्धति की मूल भावना बच्चों के मन में आत्मविश्वास जगाने की थी ताकि बच्चे अपनी निजी व्यक्तिकता के साथ खड़े हो सकें। यकीनन सहज और स्वाभाविक व्यक्तित्व मूल्यवान होता है। इस बात को लेकर श्री कोबायाशी की समझ गहरी थी। स्नेह की जो विरासत उन्होंने अपने छात्रों को सौंपी उसका कोई तोड़ नहीं है।
शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण चरण प्राथमिक शिक्षा ही है। तोमोए में कक्षाएं छोटी और पाठ्यक्रम मुक्त थीं। ताकि बच्चों की व्यक्तिकता बढ़ सके। उनका आत्मसम्मान उभर सके। बच्चों को पूर्व निर्धारित खांचों में ढालने की कोशिश करने के बजाय उन्हें प्रकृति पर छोड़ने, उन्हें अपने सपनों के अनुरूप पंख फैला कर उड़ने देने, उनकी महत्वकांक्षाओं को न कुचलने की भरसक कोशिश तोमोए में की जाती थी। जाहिर है ऐसे माहौल में बच्चों का मन रमना ही था। उन्हें आत्मविश्वासी बनना ही था।
तोत्तो-चान चलती कक्षा के दौरान अकसर खिड़की पर खड़ी हो साजिन्दों का इंतजार करती थी। इस बात का जिक्र किताब में कई बार किया गया है। जापानी में लिखी गयी किताब का शीर्षक भी “खिड़की में खड़ी नन्ही लड़की” है।
दरअसल ये एक जापानी मुहावरा है। जापान में जब लोगों को यह कहना होता था कि कोई व्यक्ति हाशिये पर जी रहा है या फिर मूल धारा से कट चुका है तो वे कहते थे कि वह खिड़की के पास खड़ा है। बचपन में तोत्तो-चान खिड़की के पास महज इस उम्मीद में खड़ी होती थी कि शायद कहीं कोई साजिंदे नज़र आ जाएं। फिर भी तोमोए के उर्वर सृजनात्मक परिवेश के कारण एक तरह से वह सबसे अलग मूलधारा से कटा हुआ जीवन जी रही थी। इस लिए जापानी में लिखी किताब का शीर्षक प्रासंगिक लगता है। मूल धारा से काट कर बनी बनायी लकीर पर न चलने देकर तोमोए ने आनन्द, उल्लास और आत्मविश्वास की एक खिड़की आजीवन उसके लिए खोल दी। उस खिड़की ने ही उसे वह हौसला दिया कि आज तोमोए उसके साथ-साथ हमारे दिलों में भी उम्मीद की जिन्दा तस्वीर बन कर दस्तक देता है।
तोत्तो-चान की किताब के जापानी संस्करण ने इतिहास बनाया। छपने के पहले ही बरस में इसकी 45 लाख प्रतियां बिकीं। खूबसूरत बात ये है कि इसे प्राथमिक शालाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने न सिर्फ़ पढ़ा बल्कि पढ़ने के बाद अपने अनुभवों को साझा करते हुए तोत्तो-चान को खत भी लिखे। इस तरह ये किताब महज एक सनसनी नहीं थी। इसके दूरगामी परिणाम हुए। इसका अंदाजा किताब के विविध भाषी संस्करणों के प्रकाशन से लगाया जा सकता है।
इस किताब में उन सबको देने के लिए बहुत कुछ है जिनका बच्चों से किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध है। शिक्षक, माता-पिता, अभिभावक सबको इसे पढ़ना चाहिए। जो हरकतें बचपन मे तोत्तो-चान ने की बहुत से बच्चे करते हैं। पर वे उसे शैतानी की तरह, गलत काम की तरह लेते हैं। उनमें अपने विचार और निर्णयों को लेकर वह कनविक्शन नहीं होता जो तोत्तो-चान के व्यक्तित्व में था। हमारे यहाँ हिंदुस्तान में शिक्षा के हर पायदान की जो हकीकत है वह सोचनीय है। पढ़िये एक बार तोत्तो-चान को शायद उम्मीद की कोई खिड़की हमारे आसपास भी खुल जाए।
(पुस्तक: तोत्तो चान; लेखक: तोत्सुको कुरोयानागी; मूल भाषा: जापानी; अनुवाद: याज्ञिक कुशवाहा; प्रकाशन: नेशनल बूक ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 1996)