सोनल मंजू श्री ओमर
कानपुर, उत्तर प्रदेश
महाभारत काल की बात है, एक दिन दुर्योधन की पत्नी रानी भानुमति, अपने पति के परमप्रिय मित्र कर्ण के साथ शतरंज का खेल खेल रही थी। जब भानुमति लगभग खेल हारने की कगार पर थी, तभी दुर्योधन कमरे में प्रवेश करते है। सनातन रीति-रिवाजों के अनुसार रानी अपने पति के सम्मान में खड़ी हो गईं।
लेकिन कर्ण ने मित्र दुर्योधन को आते नही देखा, जिसकारण कर्ण को यह लगा कि भानुमति हार रही है और इसी वजह से वहाँ से प्रस्थान करने के लिए खड़ी हो गई हैं।
यह सोचकर कर्ण ने भानुमति को दोबारा खेल में बिठाने के लिए उनकी गहनों वाली बेल्ट खींचकर बिठाने का प्रयास किया जिससे बेल्ट टूट गई और सफेद मोती व अन्य कीमती जेवर पूरे कमरे में बिखर गए।
दिलचस्प बात यह है कि दुर्योधन के स्थान पर कोई और व्यक्ति होता तो वह उस व्यक्ति को मार डालता जिसने उसकी पत्नी को छूने की हिम्मत की, जो हस्तिनापुर की रानी भी थी। लेकिन इस दृश्य को देखकर शंका और क्रोधित होने के बजाय, दुर्योधन मुस्कुराया और भानुमति से पूछा, ‘क्या मैं इन बिखरे हुए मोतियों को इकट्ठा कर दूँ? या मैं इन्हें पिरो भी दूँ?’
यह कहानी दोस्ती और विश्वास के सही अर्थ को दर्शाती है, यह इस बात का एहसास कराती है हमें कि आपसी विश्वास के बिना दोस्ती कुछ भी नहीं है। कर्ण और दुर्योधन के बीच ऐसी ही आस्था और मित्रता थी।