रूची शाही
सुनो कुछ दिनों तक मत लिखना
ऐसी कोई कविता
जिसमे मेरे साथ बिताए हुए वक्त का
जरा सा भी जिक्र हो
पढ़ कर मेरा पत्थर होता मन
फिर से पिघलने लगता है
कठोर होते मन को संभालना फिर भी आसान है
पर जो मन अवसादों के लिए नदी बन
बहना शुरू करता है ना
उसे संभालना नामुमकिन सा हो जाता है
तुम तो जानते हो ना मुझे
फिर भी मेरे जख्मों को हवा देकर
आखिर ऐसा कौन सा सुख पाते हो
जो मैने तुम्हारे साथ रहकर तुमको न दिया हो
बताओ ना मुझे
क्या कुछ बाकी रह गया था तुमको देने से
जो इस तरह वसूली कर रहे हो
अगर और भी कुछ चाहिए मुझसे
तो मांग लो न आकर मुझसे
ये आंख मिचौली किसलिए
किसलिए बार बार मुझको आजमाना
सुनो! यूं पुकारना बंद कर दो मुझको
बंद कर दो इस तरह आवाजें लगा कर छुप जाना
इस तरह मुझको बुलाने से
कहीं खूबसूरत होगा
तुम्हारा मुझ तक लौट आना….