वंदना सहाय
नहीं याद है
नदी को अपना जन्म
कब से
उसने बहना शुरु किया था
किसी बर्फीले चट्टान ने
पिघल कर उसे जन्म दिया
और वह उतर आयी
नीचे मैदानों में
उसने फिर बहना शुरु किया
दो किनारों के बीच
अब बहना ही
उसका जीवन था
पिघलते चट्टानी हृदय ने
उसे बनाया
अविरल प्रवहमान होती हुई
एक सशक्त नदी
अपने तेज वेग से
वह कभी देख ही न पायी
वात्सल्य से भरे
चट्टान के उस चेहरे को
बहती रही वह बरसों बरस
उपकार कर
जीती रही दूसरों के लिए
फिर धीरे-धीरे
वह सिमट गयी
वेगहीन और कृशकाय होकर
क्योंकि हिममंडित वह चट्टान
अब खंडित हो
मिट्टी में मिल चुका था
नदी ने अपनी थकीं पलकें उठायीं
तो देखा-
धरती का सीना चीर
लोग मिट्टी में बीज बो रहे थे